इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है
1.अनुराग का सियासी निवेश-2
हमीरपुर संसदीय क्षेत्र के बाहर अनुराग ठाकुर के लिए केंद्रीय मंत्री पद का वरदान व आशीर्वाद, इस बार की यात्रा को राज्य की मुख्यधारा बनाने की कोशिश तथा इसके सफलतम आयाम तक पहुंचाने में मददगार साबित हुआ है। हालिया वर्षों में, ऐसी स्थिति में मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर के अलावा और कोई नेता अपनी प्रादेशिक भूमिका में अंगीकार नहीं हुआ है, लेकिन बतौर केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर की पृष्ठभूमि, पूर्व मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल की विरासत और मोदी मंत्रिमंडल का प्रभार गूंज रहा है। अब देखना यह होगा कि राज्य की भूमिकाओं में उनके केंद्रीय दायित्व का ऊंट किस करवट बैठता है। केंद्रीय मंत्री ने इस आशय के संकेत देते हुए शिमला, मंडी से कांगड़ा तक की यात्रा को भविष्य के संकल्प से बांधा, अपनी भूमिका का विजन पेश किया और जमीन से जुड़े रहने की सौगंध में वादों का नक्शा तैयार किया। उनके वादों के नक्शे में हमीरपुर से इतर राज्यव्यापी दृष्टिकोण परिलक्षित होता है। वह प्रदेश के लिए कहने की कोशिश में अपनी स्वीकार्यता का जायजा ले रहे हैं। इस बार शब्द अपनी शरण में क्षेत्रीय संवेदना को प्रश्रय दे रहे हैं।
अनुराग अगर हिमाचल की सांस्कृतिक व कलात्मक पहचान के सारथी बनना चाहते हैं, तो चंबा रूमाल, कांगड़ा पेंटिंग, कुल्लू की शाल, सिरमौरी लोइया तथा हर तरह के रंग में रंगी टोपियां निश्चित रूप से हिमाचल का सिर ऊंचा करेंगी। वह हिमाचल को स्पोट्र्स का हब बनाने की हामी भरते हैं, तो एफएम रेडियो की आवाज को प्रदेश में बुलंद करना चाहते हैं। यात्रा के हर पड़ाव की भूमिका, विश£ेषण और साधना का फलक देखा जा सकता है। वह शिमला व मंडी के महत्त्व में क्रिकेट का महाकुंभ जोडऩा चाहते हैं, तो धर्मशाला के सपनों में हाई अल्टीट्यूड ट्रेनिंग सेंटर की खुमारी भरना चाहते हैं। अनुराग इस बार जीवन के शुरुआती दौर की कहानी में कांगड़ा के वृत्तांत को इतना लंबा करने में सफल रहे कि उसकी सियासत को यहां भी घर दिखाई दे रहा है। इसमें दो राय नहीं कि सियासत जब संप्रदाय हो जाती है, तो हर लम्हा काम आता है। अनुराग ने क्रिकेट में जुनून से राजनीति का सुरूर पाया और इसकी पौध में उगे क्रिकेट स्टेडियम, अकादमी और खेल पर्यटन ने हिमाचल के सोच को बदला। केंद्रीय मंत्री की राजनीतिक रीढ़ में खेलों के प्रति लगाव और कुछ कर दिखाने की इच्छा रही है और अगर इस दिशा में ‘डबल इंजन’ सरकार का रुतबा कायम होता है, तो हिमाचल वाकई स्पोट्र्स हब बन कर खेल पर्यटन के ऊंचे आयाम पैदा कर सकता है।
स्की विलेज, वाटर स्पोट्र्स तथा साहसिक खेलों के लिए हिमाचल की विविधता काम आएगी, जबकि तमाम खेलों के प्रशिक्षण के लिए यहां की आबोहवा की क्षमता में देश आगे बढ़ सकता है। राज्य और केंद्र के बीच सेतु के रूप में अनुराग अपने विभागीय आंचल भी फैला दे, तो एक साथ
कई सूरज निकल सकते हैं। अनुराग के इशारे में प्रदेश के खेल मंत्री को अपनी परियोजनाओं का शृंगार करना चाहिए और इसके लिए लक्ष्य निर्धारित करना होगा। हिमाचल को राष्ट्रीय खेलों का एक आयोजन पूरी तरह खेल हब बना सकता है। राष्ट्रीय खेल आयोजन का मुख्य स्टेडियम अगर धर्मशाला का पुलिस मैदान बनाया जाए, तो अनेक फील्ड स्पोट्र्स व इंडोर खेलों के हिसाब से ऊना, बिलासपुर, चंबा, मंडी, हमीरपुर, कुल्लू, सोलन व कई अन्य शहरों तक ढांचा विकसित होगा। इसके साथ-साथ पौंग, गोबिंदसागर व कोल डैम में वाटर स्पोट्र्स के राष्ट्रीय लक्ष्य चिन्हित होंगे। हिमाचल को खेल हब बनाने के लिए राष्ट्रीय खेलों का आयोजन एक मुकम्मल तस्वीर की तरह सहायक होगा। इसी तरह सूचना-प्रसारण मंत्रालय के तहत नए एफएम रेडियो स्टेशनों के अलावा दूरदर्शन का हिमाचल चैनल तथा रेडियो प्रसारणों में राज्य स्तरीय कार्यक्रमों का नेटवर्क तैयार हो सकता है। केंद्रीय मंत्री प्रत्यक्ष या परोक्ष में जो कह-कर गए हैं, उसे समझने में राज्य सरकार की पहल क्या रंग ला सकती है, आगे विशषण करेंगे।
2.जातीय जनगणना क्यों
जातीय जनगणना की मांग प्रधानमंत्री मोदी की दहलीज़ तक आ गई है। बेशक जाति एक सामाजिक और सामुदायिक सचाई है, लेकिन आम आदमी, पिछड़े, दबे-कुचले और गरीब को उसी के जरिए सामाजिक न्याय मिलेगा, ऐसा बिल्कुल भी नहीं है। बिहार का ही उदाहरण गौरतलब है, क्योंकि वहीं के नेता सबसे ज्यादा उछल रहे हैं कि लाभकारी योजनाओं का फायदा अंतिम व्यक्ति तक जरूर पहुंचे, लिहाजा जातिवार डाटा उपलब्ध होना चाहिए। बिहार में बीते 16 सालों से लगातार नीतीश कुमार मुख्यमंत्री हैं। उनसे पहले लालू प्रसाद यादव और उनकी पत्नी राबड़ी देवी 15 साल तक मुख्यमंत्री रहे। बिहार का बदनसीब यथार्थ यह है कि अब भी हर साल भयानक बाढ़ आती है, पुल सरीखे निर्माण-कार्य ढह जाते हैं, लोगों के घर ध्वस्त होकर बहने लगते हैं और औसत बिहारी लावारिस की जि़ंदगी जीने को विवश होता है। यह विनाशकारी सिलसिला कभी नहीं रुक पाया है। कमोबेश बाढ़ की व्यवस्था के लिए जातीय जनगणना की कोई जरूरत नहीं थी। कोरोना महामारी के दौरान अस्पतालों में सुअरों को आराम करते भी देखा गया है, बाढ़ में ही ठेले पर बैठकर डॉक्टर को अस्पताल तक जाने के दृश्य भी सामने आए हैं।
दवाओं और इलाज की चरमराती व्यवस्था की बात फिलहाल छोड़ देते हैं। आर्थिक मंदी, महंगाई, बेरोजग़ारी सरीखी समस्याएं तो ‘राष्ट्रीय’ हैं और विकास के पायदान पर बिहार सबसे निचली जमात में है। इन दुरावस्थाओं का जिक़्र कोई नहीं करता, लेकिन जातिगत जनगणना के मुद्दे पर मुख्यमंत्री और नेता प्रतिपक्ष ‘बग़लगीर’ हो जाते हैं। जातीय जनगणना के मुद्दे का विश्लेषण हम पहले भी कर चुके हैं। संसद में मोदी सरकार के मंत्री स्पष्ट कर चुके हैं कि जातीय जनगणना देश भर में नहीं कराई जाएगी, लेकिन फिलहाल प्रधानमंत्री का जवाब आना है। बेशक यह असंवैधानिक कवायद नहीं है। गुलाम भारत में 1881 में पहली बार सामान्य जनगणना की गई थी, जिसमें पुरुषों और महिलाओं की संख्या गिनी गई थी। उसके बाद मुसलमान, सिख, पारसी समुदायों की गणना की गई। 1931 की जनगणना में जातीय आधार पर गिनती की गई। 1941 से 2011 तक विभिन्न नामकरणों के तहत जातीय जनगणना की जाती रही, लेकिन आंकड़े कभी भी सार्वजनिक नहीं किए गए। कारण यह भी हो सकता है कि स्वतंत्र भारत में सरदार पटेल, काका कालेलकर, राममनोहर लोहिया से लेकर कर्पूरी ठाकुर तक जातीय जनगणना को वैमनस्य और विभाजक स्थितियों का बुनियादी कारक मानते रहे। यदि तब यह जनगणना जरूरी नहीं थी, तो आज सामाजिक न्याय की बुनियाद जातिवार जनगणना को ही क्यों माना जाए? दरअसल अब यह मुद्दा ज्यादा जोर पकडऩे लगा है, क्योंकि सबसे बड़े राज्य-उप्र-में विधानसभा चुनाव करीब हैं। बिहार और उप्र के अलावा, ओडिशा और महाराष्ट्र जैसे राज्यों ने भी इसी जनगणना की मांग की है। महाराष्ट्र विधानसभा में प्रस्ताव भी पारित किया जा चुका है।
कुछ भी दलीलें दी जाएं और सामाजिक न्याय का रोना रोया जाए, लेकिन हमारी राजनीति जाति से ही बंधी है और जातीय जनगणना से ऐसे दल अपने वोट बैंक व्यापक करना चाहते हैं। ओबीसी, दलित और आदिवासी की राजनीति करने वाले दल आजकल चिंतित हैं, क्योंकि 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को ओबीसी के 44 फीसदी वोट मिले, जबकि विपक्ष को औसतन 27 फीसदी मिले। कभी यह फासला विपरीत होता था। आज दलित समुदाय भी भाजपा के पक्ष में वोट कर रहे हैं और आदिवासी भी अछूते नहीं रहे हैं। दरअसल जातीय जनगणना वे नेता और दल कराना चाहते हैं, जिनकी कुटिल निगाहें पिछड़े, अति पिछड़े और दलित वोट बैंक पर लगी रही हैं। मुसलमान भी उन्हें वोट देते हैं, क्योंकि वे नफरत की हद तक भाजपा-विरोधी हैं। कभी जैन, बौद्ध, पारसी, ईसाई और सिख समुदायों की गणना को लेकर अभियान नहीं छेड़े गए। इन समुदायों ने आरक्षण की मांग भी नहीं की। इनमें से कइयों की आर्थिक स्थिति इतनी खराब है कि वे मजदूरी करते हैं, ठेला चलाते हैं और फुटपाथिया हैं। ये जातियां न तो मंडल में शामिल हैं और न ही कमंडल को चिंता है। यदि जनगणना का मकसद सामाजिक न्याय है, तो फिर जनगणना ‘गरीबी’ के आधार पर होनी चाहिए और विसंगतियों के शिकार लोगों का हर स्तर पर उत्थान होना चाहिए।
3.हिरासत में मंत्री
मर्यादाएं जब टूटती हैं, तब वे अशोभनीय दृश्य ही रचती हैं। दुर्योग से भारतीय राजनीति में ऐसे दृश्य अब बार-बार उभरने लगे हैं। केंद्रीय मंत्री नारायण राणे की गिरफ्तारी भारतीय राजनीति के क्षरण का ताजा उदाहरण है। कल महाराष्ट्र में रत्नागिरी पुलिस ने उन्हें हिरासत में ले लिया। आरोप है कि अपनी जन-आशीर्वाद यात्रा के दौरान उन्होंने राज्य के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे के बारे में अशालीन टिप्पणी की थी, जिसके विरुद्ध शिव सैनिकों में तीखी प्रतिक्रिया हुई और राणे के खिलाफ कई थानों में प्राथमिकी दर्ज करा दी गई। रत्नागिरी कोर्ट से अग्रिम जमानत की याचिका खारिज होने और बॉम्बे हाईकोर्ट द्वारा त्वरित सुनवाई से इनकार के बाद पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया। इसके साथ ही राज्य में कई जगहों पर शिव सेना व भाजपा कार्यकर्ता आपस में भिड़ गए और एक तनावपूर्ण स्थिति पैदा हो गई। विडंबना यह है कि चंद वर्ष पहले तक यही कार्यकर्ता एक-दूसरे के कंधे से कंधा मिलाकर चुनाव लड़ रहे थे और उनके नेता सत्ता में साथ-साथ भागीदार थे।
कुछ ही माह पूर्व मई में कोलकाता में ऐसे ही दृश्य देखने को मिले थे, जब कुछ नवनियुक्त मंत्रियों को सीबीआई ने नारदा स्टिंग ऑपरेशन मामले में हिरासत में लिया था और तब तृणमूल कांग्रेस व भाजपा के नेता-कार्यकर्ता आमने-सामने आ गए थे। उस समय भी राजनीतिक बदले के आरोपों-प्रत्यारोपों ने ऐसा कटु माहौल बनाया, जिससे जांच एजेंसियों की प्रतिष्ठा तो धूमिल हुई ही, आज तक केंद्र व पश्चिम बंगाल सरकार के रिश्ते सहज नहीं हुए हैं, संघवाद की आदर्श कल्पना से तो खैर कोसों दूर हैं। सियासी प्रतिद्वंद्वियों से राजनीतिक स्तर पर निपटने के बजाय उन्हें कानूनी रूप से घेरने का चलन नया नहीं है, और इसके लिए तंत्र का बेजा इस्तेमाल भी दशकों से होता रहा है, पर हमारे राजनेता एक-दूसरे के खिलाफ यूं अभद्र भाषा का इस्तेमाल सार्वजनिक रूप से नहीं करते थे। समाज इसे अच्छी नजरों से नहीं देखता था। शायद इसीलिए तीखे राजनीतिक विरोध के बावजूद उनके निजी रिश्ते बने रहते और इस कारण संसदीय प्रक्रियाओं का निबाह भी आसानी से हो जाता था, बल्कि सामाजिक स्तर पर राजनीतिक खेमेबाजी की कटुता भी नहीं आ पाती थी। लेकिन हाल के वर्षों में भारतीय राजनीति की यह खूबी तेजी से खत्म हुई है और इसके लिए हमारा पूरा राजनीतिक वर्ग जिम्मेदार है।
नारायण राणे शिव सेना, कांग्रेस और भाजपा, सभी पार्टियों में रह चुके हैं। ऐसे में, उनसे अधिक परिपक्वता की अपेक्षा की जाती है। फिर वह स्वयं एक सांविधानिक पद पर हैं, अत: दूसरे सांविधानिक पद की गरिमा का उन्हें हर हाल में बचाव करना चाहिए। सवाल यह भी है कि बयानों के आधार पर यदि मुकदमे दर्ज किए जाने लगे और गिरफ्तारियां होने लगीं, तो कितने सारे विधायक, सांसद और मंत्री जेल में होंगे? निस्संदेह, एक आदर्श संघीय ढांचे के लिए जरूरी है कि पार्टी नेतृत्व अपने-अपने बड़बोले नेताओं पर नजर रखें। विडंबना यह है कि सभी दल ऐसे तत्वों को पुरस्कृत करने की भूमिका अपनाने लगे हैं। ऐसे में, उद्दंड कार्यकर्ताओं का मनोबल बढ़ता जाता है, जो देश के राजनीतिक परिदृश्य के लिए संकट की बात है। राजनीतिक बदले व प्रतिशोध की कार्रवाइयों से देश का संघीय ढांचा कमजोर हो रहा है, यह बात हमारी राजनीतिक पार्टियां जितनी जल्दी समझ लें, उतना ही अच्छा होगा।
4.बचाव हो प्राथमिकता
अफगानिस्तान में जिस तेजी से घटनाक्रम बदला, उसने पूरी दुनिया को हैरत में डाला है, जिसके चलते तमाम देशों के नागरिकों की सुरक्षित वापसी को अंजाम देना संभव नहीं हो रहा। अमेरिका व नाटो सेनाओं की वापसी का कार्यक्रम घोषित होने के बाद तालिबान की सत्ता में वापसी तय थी लेकिन इतनी जल्दी काबुल सरकार का पतन हो जायेगा, ऐसी उम्मीद न थी। अत: पंद्रह अगस्त को तालिबान द्वारा काबुल पर कब्जा किये जाने के एक सप्ताह बाद भी बड़ी संख्या में भारतीय अफगानिस्तान के विभिन्न शहरों में फंसे हुए हैं। इनमें वे भारतीय कर्मचारी भी शामिल हैं जो इस युद्धग्रस्त देश में विभिन्न विकास परियोजना स्थलों पर तैनात थे। तालिबान द्वारा काबुल पर कब्जा करने के दो दिन के भीतर भारत सरकार ने राजदूत व दूतावास के अन्य कर्मचारियों समेत करीब दो सौ लोगों को अफगानिस्तान से निकाल लिया। सोलह अगस्त की पहली उड़ान में चालीस लोगों को वापस लाया गया, उसके बाद डेढ़ सौ लोगों को भारत लाया गया। ऐसा लगता है कि केंद्र सरकार ने दूतावास को बंद करके और राजनयिकों व अन्य अधिकारियों को तुरंत एयरलिफ्ट करके एकतरफा सोचा और उस पर तुरंत कार्रवाई की। यद्यपि भारत सरकार लगातार इस बात पर बल देती रही है कि अफगानिस्तान से सभी भारतीयों को सुरक्षित निकालना उसकी सर्वोच्च प्राथमिकता है और रहेगी। लेकिन हालात की जटिलताओं के चलते उत्पन्न होने वाली बाधाओं का दूरदृष्टि के साथ आकलन नहीं किया गया। अफगानिस्तान के विभिन्न शहरों में फंसे भारतीयों की निकासी में आने वाली बाधाओं को ध्यान में रखकर रणनीति तैयार करने की जरूरत थी। दरअसल, काबुल में सरकार के पतन के बाद ही पूरे अफगानिस्तान में अराजकता का माहौल व्याप्त हो गया है। प्रशासन के नाम पर आधुनिक हथियारों से लैस तालिबानियों का कब्जा है। यहां तक कि हवाई अड्डे आने वाले लोगों को जगह-जगह रोका जा रहा है। ऐसे में भारतीय दूतावास से मदद न मिलने के कारण अफगानिस्तान में फंसे भारतीयों की स्थिति बेहद चिंताजनक हो चली है।
दरअसल, इन विषम परिस्थितियों के बीच अफगानिस्तान में सैकड़ों ऐसे भारतीय कामगार हैं, जो खुद को बेहद मुश्किल में फंसा पा रहे हैं। कई भारतीय कामगारों के पास उनके पासपोर्ट तक नहीं हैं। ये उनके नियोक्ताओं ने अपने पास जमा करा लिये थे। जब तालिबान ने चौतरफा हमला किया तो ये नियोक्ता अपनी जान बचाकर भाग खड़े हुए। ऐसे में इन भारतीय कामगारों का अफगानिस्तान से निकलना बेहद जटिल होता जा रहा है। हालांकि, इन मुश्किल हालात में दस्तावेजों को निर्णायक कारक नहीं माना जाना चाहिए, क्योंकि इन परिस्थितियों में उनकी जीवन सुरक्षा ही दांव पर लगी हुई है। ऐसे में स्थिति और ज्यादा खराब हो जाती है जब परदेश में फंसे लोगों की सहायता कर सकने वाला दूतावास का कोई कर्मचारी भी उपलब्ध न हो। केंद्र सरकार को नागरिकों के हित में अपने अन्य विकल्पों पर अतिशीघ्र विचार करना चाहिए। अन्य चैनलों के माध्यम से तालिबान से संवाद की गुंजाइश भी रखनी चाहिए ताकि मुश्किल हालात में फंसे भारतीयों के जीवन की रक्षा की जा सके। कूटनीतिक स्तर पर प्रयासों के जरिये तालिबान को अहसास कराया जाना चाहिए कि पिछले दो दशकों में भारत ने अफगानिस्तान के रचनात्मक विकास में निर्णायक भूमिका निभायी है। भारत ने करीब तीन अरब डॉलर से अधिक धनराशि का अफगानिस्तान की विभिन्न विकास योजनाओं में बड़ा निवेश किया है। इसमें अफगानिस्तान की चार सौ से अधिक बुनियादी ढांचा परियोजनाओं पर किया गया निवेश भी शामिल है। यहां तक कि अफगानिस्तान के नये संसद भवन का निर्माण भी भारतीय निवेश के जरिये किया गया। ऐसे में अफगानिस्तान के लोगों के कल्याण के लिये किये गये भारतीय प्रयासों को यूं ही जाया नहीं होने देना चाहिए। जल्दी ही काबुल में नयी तालिबान सरकार का गठन होने जा रहा है। भारत को अपने रणनीतिक हितों की रक्षा के लिये और स्वास्थ्य, शिक्षा और अन्य क्षेत्रों में किये गए विकास की पहल के साथ आगे बढ़ना चाहिए। काबुल में भारत की उपस्थिति नये शासकों के साथ रचनात्मक रूप से जुड़ने की कोशिश के रूप में होनी चाहिए।