इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है।
1.अदालत में गैंगवार
न्याय के घर में न्यायाधीश न्याय करते हैं, लेकिन जब वहां भी पहुंचकर अपराधी कानून-व्यवस्था को धता बताने लगें, तो न केवल शर्मनाक, बल्कि दुखद स्थिति बन जाती है। राष्ट्रीय राजधानी में उच्च सुरक्षा वाली रोहिणी कोर्ट में सरेआम गोलियां चलीं और दो बदमाशों ने एक बदमाश को ढेर कर दिया। मजबूरन पुलिस को भी अदालत में ही दोनों हथियारबंद बदमाशों के खिलाफ अंतिम विकल्प का सहारा लेना पड़ा। शायद यह एक असहज सवाल होगा, लेकिन क्या पुलिस उन अपराधियों को पकड़ने की कोशिश नहीं कर सकती थी? आखिर ये अपराधी अदालत में घुसे कैसे? इनकी हिम्मत कैसे पड़ी कि वकीलों का चोला पहनकर उन्होंने वकील बिरादरी पर लोगों के विश्वास को हिलाया? क्या उच्च सुरक्षा वाले उस कोर्ट परिसर में वकीलों को प्रवेश से पहले रोकने-टोकने-जांचने की हिम्मत पुलिस में नहीं है? बेशक, यह जो कमी है, उसके लिए पुलिस के साथ-साथ वकीलों की भी एक जिम्मेदारी बनती है। सोचना चाहिए कि राष्ट्रीय राजधानी की एक अदालत में यह खिलवाड़ हुआ है, तो देश में बाकी अदालतों में जांच-प्रवेश की कैसी व्यवस्था होगी? अदालत परिसर में भी तो कम से कम ऐसी चौकसी होनी चाहिए कि कोई अपराधी किसी प्रकार के हथियार के साथ न घुस सके। क्या हमारे न्याय के घर अपराधियों के लिए तफरी या वारदात की जगह में बदलते जाएंगे?
अदालत में हुई इस गैंगवार ने कानून-व्यवस्था के इंतजाम को झकझोर कर रख दिया है। वकीलों और पुलिसकर्मियों से भरे रहने वाले परिसर में न्याय का यह बर्बर मजाक नहीं तो क्या है? क्या पिछले वर्षों में राष्ट्रीय राजधानी में अपराधियों का दुस्साहस बढ़ गया है? मारे गए बदमाश गोगी की गैंग हो या उसे मारने वाले ताजपुरिया की गैंग, इनके लिए भला राष्ट्रीय राजधानी में कैसे जगह निकल आई है? यहां अपराधियों को कौन पनपा रहा है या कौन पनपने दे रहा है? रोहिणी कोर्ट की इस वारदात की रोशनी में पूरे राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के अपराध जगत पर नजर फेर लेनी चाहिए। स्थिति अच्छी नहीं है, विगत वर्षों में दिल्ली न सिर्फ दंगों की गवाह रही है, दिल्ली ने किसान आंदोलन के नाम पर भी दिल्ली सीमा से लाल किले तक अपराधियों का तांडव देखा है। अब भी अगर सचेत नहीं हुए, तो क्या राष्ट्रीय राजधानी अपना आकर्षण खोने नहीं लगेगी? राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की ताजा रिपोर्ट के अनुसार, 2020 में लगातार दूसरे वर्ष दिल्ली में 20 लाख से अधिक आबादी वाले 19 महानगरीय शहरों में अधिकतम अपराध दर दर्ज हुए हैं। चेन्नई कुल 88,388 मामलों के साथ सूची में दूसरे स्थान पर रहा। दिल्ली में भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की विभिन्न धाराओं के तहत 150.6 प्रति दस लाख जनसंख्या की दर से 2,45,844 मामले दर्ज हुए। हां, हो सकता है, दिल्ली में लोग ज्यादा जागरूक हों, पुलिस भी रिपोर्ट दर्ज करने में आगे हो, लेकिन तब भी दिल्ली को ऐसी किसी भी स्याह सूची में नीचे ही आना चाहिए। साल 2011 के अनुसार, दिल्ली में एक करोड़ साठ लाख से ज्यादा लोग थे, अब आबादी दो करोड़ के आसपास होगी, इतने बड़े शहर की कानून-व्यवस्था संभालने वाली एजेंसियों को इतना ज्यादा मुस्तैद रहने की जरूरत है कि यहां किसी भी अपराधी को फन फैलाने का कोई मौका न मिले।
2.मौत का मुआवजा या ‘जीरा’
कोरोना वायरस से हुई मौतों का सरकारी मुआवजा सिर्फ 50,000 रुपए प्रति….वाकई ‘ऊंट के मुंह में जीरे’ समान है। मुआवजा केंद्र सरकार का विभाग नहीं देगा, बल्कि राज्य सरकारों के आपदा राहत कोष पर बोझ डालने की नीति तय की गई है। केंद्र सरकार के ही राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण ने यह पेशकश सर्वोच्च न्यायालय के सामने रखी है। बुनियादी मांग थी कि कोरोना के कारण मृत व्यक्ति के परिजन को कमोबेश 4 लाख रुपए की अनुग्रही राशि दी जाए। सर्वोच्च अदालत की इच्छा भी यही थी, लेकिन उसने भारत सरकार का निर्णय जानने की पहल की। केंद्र सरकार के फैसले का हलफनामा अभी सुप्रीम अदालत में दाखिल किया जाना है, लेकिन राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन ने स्थितियों का खुलासा कर दिया है कि मुआवजा 50,000 रुपए प्रति ही दिया जा सकता है। भारत में कोरोना से मौतों का सरकारी आंकड़ा करीब 4.50 लाख है। वैसे कई अध्ययन मौत का अनौपचारिक आंकड़ा 50 लाख तक आंकते रहे हैं। विदेशी मीडिया, शोध प्रकाशनों और एजेंसियों ने भी लगभग ऐसे ही दावे किए हैं। आपदा प्रबंधन प्राधिकरण की पेशकश के मद्देनजर राज्य सरकारों की जेब से 2250 करोड़ रुपए का अनुग्रही भुगतान करना पड़ेगा।
राज्यों के लिए यह किसी प्रशासनिक और आर्थिक चुनौती से कम नहीं है। हालांकि प्रत्येक राज्य आपदा राहत कोष में 75 फीसदी योगदान भारत सरकार का होता है। पहाड़ी और पूर्वोत्तर राज्यों के लिए 90 फीसदी योगदान केंद्र सरकार ही देती है, लेकिन ये अनुदान तमाम आपदाओं से निपटने के लिए होते हैं, लिहाजा इस पेशकश में भी कई सवाल निहित हैं। हालांकि मौजूदा वित्त वर्ष में राज्य आपदा राहत कोष में करीब 30,000 करोड़ रुपए का अतिरिक्त कोष भी जोड़ा गया है, लेकिन वह भी अपर्याप्त है। अहम सवाल यह है कि किसे कोरोना का मृतक माना जाएगा? यदि संक्रमित व्यक्ति अस्पताल में दाखिल नहीं है और बाहर कहीं भी कोरोना के कारण उसकी मौत हुई है, तो उसे प्रमाणित कौन करेगा कि मौत कोरोना संक्रमण के कारण हुई है? अस्पताल में सभी कोरोना मरीजों और बाद में मौत होने पर ऐसे प्रमाण-पत्र नहीं दिए गए हैं। उसके पीछे दृष्टि रही है कि मौत के आंकड़े बढ़ा कर पेश न किए जाएं। इस प्रक्रिया में गरीब और आम आदमी सरकारी मुआवजे से लगातार वंचित रहेंगे, क्योंकि न तो मौत का अधिकृत प्रमाण-पत्र होगा और न ही वे लड़-भिड़ कर अपना अधिकार हासिल कर सकेंगे। गौरतलब है कि बाढ़, भूकम्प और सूखे जैसी अधिसूचित आपदाओं पर खर्च करने के लिए भी पर्याप्त कोष चाहिए और सरकारों को यह ध्यान में रखना पड़ेगा। आपदा राहत कोष अक्सर संकुचित ही रहते हैं, लिहाजा वित्तीय संकट, तनाव और दबावों के मौजूदा दौर में कोरोना मौतों की गणना भी कम दिखाई जाएगी। परोक्ष रूप से संक्रमित नागरिकों को न्याय नहीं मिल सकेगा।
सरकार का दायित्व है कि आपदा के दौर में, खासकर चपेट में आए, नागरिकों को पर्याप्त मुआवजा मुहैया कराया जाए। बेशक एक दिहाड़ीदार या मजदूर के परिवार के लिए 50,000 रुपए की अनुग्रही राशि भी बेहद मायनेदार है, बेशक एक कॉरपोरेट नौकरीपेशा या अपेक्षाकृत सम्पन्न जमात के परिवार के लिए ऐसे मुआवजे की उतनी जरूरत न हो, लेकिन हमारा मानना है कि कोरोना के व्यापक परिदृश्य में, उसके घातक और जानलेवा परिणामों के मद्देनजर, भारत सरकार को गंभीर मंथन जरूर करना चाहिए और जनहित का निर्णय सुप्रीम अदालत के सामने पेश करना चाहिए। केंद्र सरकार को अपना दायित्व राज्य सरकारों की ओर नहीं खिसकाना चाहिए, क्योंकि कोरोना एक व्यापक और अनंत मुद्दा है। कोई दावा नहीं कर सकता कि कब यह महामारी समाप्त होगी या इस पर प्रभावी नकेल कसी जा सकेगी। हालांकि प्रयास अनवरत हैं। भारत सरकार को इस संदर्भ में एक विशेष कोष का गठन करना चाहिए। सवाल यह भी उठेगा कि अन्य आपदाओं पर भी मुआवजे का प्रावधान क्यों न किया जाए? आपदाओं की परिभाषा तो स्पष्ट है। अलबत्ता कोरोना अभी तक अधिसूचित आपदा नहीं थी। जिस देश में स्वास्थ्य संबंधी सेवाओं का ढांचा चरमराता रहा हो, जीडीपी का ‘जीरे’ समान हिस्सा ही खर्च किया जाता रहा हो, उस देश में कोरोना पहली और अंतिम बीमारी नहीं होगी, लिहाजा महामारी सरीखे तमाम रोगों के कारण मौतों के लिए मुआवजे की एक स्थायी व्यवस्था हो।
3. फिर शिक्षा का आसमान खुला
स्कूल बिन तड़पती शिक्षा को फिर इसकी वस्तुस्थिति में लाने की परिस्थितियां बन रही हैं। अंततः हिमाचल मंत्रिमंडल की बहुप्रतीक्षित घोषणा बाहर निकली और उधर स्कूलों के माहौल में फिर से छात्रों के पांवों में खुजली शुरू हो गई। आगामी सोमवार से नौवीं से बारहवीं कक्षा के लिए स्कूल घूंघट उठाएंगे और तब हफ्ते के बीच झीनी दीवारों से बारी-बारी पहले सोम से बुधवार दसवीं व बारहवीं के छात्र पढ़ेंगे और उसके बाद गुरुवार से शनिवार तक नौवीं व ग्यारहवीं के छात्रों के लिए शिक्षा का आसमान खुलेगा। शिक्षा की दूरियां पाटने के लिए जिस मशक्कत का सामना सरकार व स्कूल शिक्षा विभाग को करना पड़ रहा है, उससे भी कहीं अधिक मनोवैज्ञानिक प्रभाव से जूझ रहे अभिभावक व शिक्षक समाज के लिए यह एक तरह से राहत भरी खबर है, क्योंकि एक बार चक्र या सत्र घूम गया तो आगे निचली कक्षाओं के लिए भी स्कूल के दरवाजे खुल जाएंगे। शिक्षा के अधीर लम्हों में शिक्षक की भूमिका निरापद नहीं रही है। वह भी शिक्षा के करीब आकर टूटा और बार-बार बिखरा है। उसके संबोधन बार-बार मोबाइल या कम्प्यूटर से टकराए और इस तरह ऑनलाइन पढ़ाई के निरीह वातावरण में वह अपाहिज साबित हुआ।
सबसे अधिक मानसिक दबाव में निजी स्कूल रहे, जहां अर्थ के गणित में संचालन की शर्तें धराशाही हुईं। इस दौरान आवेदन स्कूलों को ही बंद करवाने के टाइप हुए, तो शिक्षा के प्रांगण रोए होंगे। वे तमाम परिसर खुद से रूठे और अपनी ही वीरान आंखों से इस इंतजार में रहे कि कभी तो स्कूल खुलने की चिट्ठी आएगी। कभी तो कोविड काल की पपड़ी उतार कर फिर से शिक्षा के नारे लिखे जाएंगे। फिर निजी स्कूल की बस अपने बाजुओं में छात्रों को भर कर तन के चलेगी, तो अभिभावकों के हिलते हाथों से भविष्य का सफर शुरू होगा। इस दौरान केवल बंदिशों के पहरे में स्कूल अकेला नहीं हुआ, बल्कि निजी संस्थानों की मिट्टी भी पलीद हुई है। भले ही स्कूलों की कलगी नजर आए, लेकिन अभी प्रवेश के मार्ग और शिक्षा के प्रवेश का अंतर स्पष्ट है। निचली क्लासों में जब तक ज्ञान का अंधेरा दूर करने के लिए स्कूल की राह प्रकाशमान नहीं होती, तब तक किसी मां को यकीन नहीं होगा कि घर की किलकारियां किसी पाठ्यक्रम से आ रही हैं। लगभग दो सालों से कोविड की परेशानियों ने सबसे प्रतिकूल असर छोटे बच्चों की आदतों में डाला है। यह विडंबना रही है कि बचपन को इस दौरान शिक्षा के सबसे बड़े अक्षरों से महरूम रहना पड़ा और अब भी यह इस इंतजार में है कि स्कूल में अपना आरंभिक उत्थान कर सके। बहरहाल हिमाचल ने अपने खाके में शिक्षा के जितने भी चरण जमीन पर उतारे हैं, उसका स्वागत हर कोई करेगा।
हिमाचल मंत्रिमंडल ने शिक्षा के साथ रोजगार के लिए पनवाड़ी जैसी दुकान भी खोल दी है। यानी स्कूल परिसर में दबे पांव फिर ऐसी अप्रत्यक्ष भर्ती होने जा रही है, जिसके तहत राजनीतिक धकमपेल देखी जाएगी। मासिक 5525 रुपए के भुगतान पर ‘मल्टी टास्क वर्कर’ रखे जाएंगे, जो आरंभ में भले ही स्कूल की घंटी बजाएंगे या नीर जैसी नीयत से जल वितरण करेंगे, लेकिन यही आगे चलकर वेतन विसंगतियों का परिमार्जन ही होगा। जेबीटी-सीएंडवी काडर के अंतर जिला स्थानांतरण पर सरकार नरम हुई है। अंतर जिला स्थानांतरण के लिए तेरह साल का बैरियर टूट रहा है और इस तरह मात्र पांच साल बाद उपर्युक्त काडर के ट्रांसफर आर्डर के लिए राहत का संदेश जुड़ जाएगा। यह एक व्यावहारिक व मानवीय संवेदना से जुड़ा विषय था, जिसके ऊपर जयराम सरकार ने विवेकपूर्ण फैसला लिया है। यह दीगर है कि वर्षों बाद भी स्थानांतरणों की पाजेब सरकारों के हाथ मंे रहती है और इसलिए ट्रांसफर का हर घुंघरू एक मोहलत या वरदान की तरह राजनीतिक परवरिश या सिफारिश का ही इंतजाम है। मंत्रिमंडल के आगामी फैसलों में आगे चलकर भी कर्मचारी खाका और रंग भरता हुआ नजर आ सकता है, जबकि इंतजार है कि शीघ्र अति शीघ्र स्कूल की घंटी हर श्रेणी के छात्र के लिए बजे।
4.शुद्ध हवा के मानक
विकासशील देशों की चिंताएं बढ़ेंगी
ऐसे वक्त में जब भारत समेत अन्य विकासशील देश पहले से निर्धारित वायु गुणवत्ता के मानकों को पूरा नहीं कर पा रहे हैं, विश्व स्वास्थ्य संगठन ने नये मानकों को और कठोर बना दिया है। निस्संदेह डेढ़ दशक पूर्व निर्धारित मानकों को वैश्विक बदलाव के मद्देनजर बदला जाना चाहिए लेकिन जब पहले से निर्धारित लक्ष्य ही पूरे नहीं हो पा रहे हैं तो नये मानकों पर पालन आसान नहीं लगता। कमोबेश दुनिया की नब्बे फीसदी आबादी पहले ही पूर्व में निर्धारित मापदंडों के अनुसार दूषित हवा में सांस ले रही है। जाहिर है नये मानक तय करने से और मुश्किलें पैदा होंगी। लक्ष्य को असंभव देखकर अन्य देशों में इसे नियंत्रित करने के प्रयासों में उत्साह कम होगा। ऐसे में सवाल उठता है कि जब दुनिया में पुराने मानक पूरे नहीं हो पा रहे हैं तो नये सख्त मानक क्यों? निस्संदेह, पूरी दुनिया में जिस तेजी से ग्लोबल वार्मिंग का संकट गहरा रहा है, उसे देखते हुए पर्यावरण शुद्धता की मांग जोर पकड़ती जा रही है। ऐसा हमारा दायित्व भी है लेकिन गरीब मुल्कों की अपनी सीमाएं उन्हें ऐसा करने से रोकती हैं क्योंकि बड़ी आबादी की जीविका का प्रश्न उनके सामने पहले है। वैसे भी यह प्रदूषण पेट्रोलियम व खनिज ईंधनों के उपयोग से बढ़ता है। यह भयावह है कि दुनिया में हर साल सत्तर लाख मौतें प्रदूषित वायु के चलते होती हैं। मगर डब्ल्यूएचओ ने पीएम 2.5 व पीएम 10 के जो नये मानक तय किये हैं, उन्हें जनसंख्या व जीविका के दबाव के चलते पूरा करना विकासशील देशों के लिये आसान नहीं होगा। कायदे से तो ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को नियंत्रित करने के लिये इन मानकों का पालन अपरिहार्य ही है। हाल के दिनों में ग्लोबल वार्मिंग के चलते मौसम के जो विनाशकारी तेवर पूरी दुनिया में नजर आए हैं, उसका दबाव डब्ल्यूएचओ पर भी है। उसके नये मानकों को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए।
निस्संदेह सरकार के स्तर पर प्रदूषण के कारकों पार्टिकुलेट मैटर, सल्फर डाइऑक्साइड और कार्बन मोनोऑक्साइड को नियंत्रित करने के प्रयास होने चाहिए और नागरिकों को भी इस अभियान में शामिल करना चाहिए। जागरूकता अभियान से डब्ल्यूएचओ के नये मानकों को पूरा करने की दिशा में भी पहल होगी। यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि स्विस संगठन आईक्यू एयर द्वारा जारी विश्व वायु गुणवत्ता रिपोर्ट-2020 के अनुसार दुनिया के तीस सबसे ज्यादा प्रदूषित शहरों में से बाइस भारत में स्थित हैं। वहीं दिल्ली को दुनिया की सबसे प्रदूषित राजधानियों में शामिल किया गया है। बहरहाल, डब्ल्यूएचओ की सिफारिशें ऐसे वक्त पर आई हैं जब भारत के वायु गुणवत्ता प्रबंधन आयोग ने पंजाब, दिल्ली, हरियाणा, राजस्थान और उत्तर प्रदेश की सरकारों को पराली जलाने से किसानों को रोकने और इसे नियंत्रित करने के लिये निगरानी योजनाओं को सख्ती से लागू करने के निर्देश दिये हैं। निस्संदेह, पराली जलाना सर्दी की शुरुआत में वायु की गुणवत्ता को खराब करने का एक बड़ा कारक रहा है। ऐसे में जब वर्ष 2021-22 में बेहतर खरीफ फसल उत्पादन की उम्मीद है तो पराली संकट बढ़ने की भी आशंका है। हालांकि, हरियाणा में एक लाख एकड़, उत्तर प्रदेश में छह लाख एकड़ व पंजाब में साढ़े सात हजार एकड़ से अधिक भूमि पर पराली को खाद में बदलने की योजना पर काम चल रहा है, लेकिन अन्य वैकल्पिक प्रयासों की भी जरूरत है। पर्यावरण अनुकूल विधियों में बायोमास और बिजली उत्पादन संयंत्रों में धान की भूसी के रूप में इसका इस्तेमाल भी संभव है। यदि किसानों को पराली बेचने के लाभदायक विकल्प मिलेंगे तो वे इस जलाने से बचेंगे। हाल ही में केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्री भूपेंद्र यादव की अध्यक्षता में एक बैठक में हरियाणा सरकार द्वारा बताया गया था कि राज्य में पराली जलाने से रोकने के लिये 200 करोड़ रुपये की प्रोत्साहन राशि किसानों को आवंटित की गई है और एक लाख एकड़ भूमि में जैव अपघटन के प्रयास जारी हैं। हरियाणा सरकार का दावा है कि राज्य में फसल विविधीकरण योजना के चलते धान बुवाई के क्षेत्र में दस फीसदी की कमी आई है।