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EDITORIAL TODAY (HINDI)

इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है।

1.टीका मैत्री मुहिम

भेदभाव की नीति को भारत का जवाब

ऐसे वक्त में जब पूरी दुनिया कोरोना महामारी के संकट से जूझ रही है और विकसित देश कोरोना वैक्सीन की जमाखोरी में जुटे हैं, भारत ने वैश्विक महामारी से मुकाबले के लिये प्रतिबद्धता जताते हुए अगले माह से फिर से ‘टीका मैत्री’ मुहिम शुरू करने की घोषणा की है। इसके अंतर्गत भारत अपने पड़ोसियों व दुनिया के गरीब मुल्कों को संयुक्त राष्ट्र के कार्यक्रम के तहत कोविड निरोधक वैक्सीन उपलब्ध करायेगा। केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय ने स्पष्ट किया है कि देश केवल अतिरिक्त टीकों का निर्यात करेगा। सरकार का कहना है कि ‘टीका मैत्री’ कार्यक्रम के तहत टीका निर्यात जरूर करेंगे, लेकिन अपने नागरिकों का टीकाकरण हमारी सर्वोच्च प्राथमिकता है। सरकार कह रही है कि यह मुहिम भारतीय दर्शन ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ के ध्येय के अनुरूप ही चलायी जायेगी। सरकार का दावा है कि अगले माह तीस करोड़ व आगामी तीन माहों में सौ करोड़ से अधिक टीकों की डोज उपलब्ध होगी। निस्संदेह भारत के दुनिया में सबसे बड़े टीका उत्पादक देश होने के कारण इन लक्ष्यों को पाना कठिन नहीं होगा। इसमें दो राय नहीं कि भारत की इस प्रतिबद्धता से जहां दुनिया में कोविड संक्रमण से लड़ाई आसान होगी, वहीं विश्व भारत के इस योगदान को भी स्वीकार करेगा। दरअसल, देश में कोरोना संकट की दूसरी लहर की भयावहता के बाद सरकार ने अप्रैल में टीकों के निर्यात पर रोक लगा दी थी क्योंकि देशवासी उसकी प्राथमिकता सूची में थे। लेकिन यह विडंबना ही है कि दुनिया की महाशक्तियों व विकसित देशों को जैसी प्रतिबद्धता कोरोना के खिलाफ लड़ाई में दिखानी चाहिए थी, वैसी देखने को नहीं मिली। उनकी प्राथमिकता अपने नागरिकों को टीका लगाने और उसकी जमाखोरी ही रही। इतना ही नहीं टीकाकरण के मुद्दे पर संकीर्ण राजनीति भी की जाती रही है, जिसमें दूसरे देशों के नागरिकों को अपने यहां आने से रोकने के उपक्रम किये जाते रहे हैं। ऐसे में विश्व स्वास्थ्य संगठन की कारगुजारियों पर भी सवाल उठे हैं।

टीके के मुद्दे पर संकीर्ण राजनीति का ताजा उदाहरण ब्रिटेन सरकार का है जो भारत में कोविशील्ड का टीके लगे लोगों को टीका लगा नहीं मान रही है। यह विडंबना ही है कि कोविशील्ड को ब्रिटेन में ही तैयार किया गया है और इसका उत्पादन भारत में सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया द्वारा किया गया है। जबकि ब्रिटेन में बने इसी टीके को ऑक्सफोर्ड एस्ट्राजेनेका के नाम से लगाया जा रहा है और उसे मान्यता दी जा रही है। यह तर्क समझ से परे है कि एक टीके के दो नामों से यह भेदभाव क्यों किया जा रहा है। आलोचक इसे ब्रिटेन की नस्लवादी सोच का पर्याय मान रहे हैं। दरअसल, दुनिया के कुछ अन्य देश भी ऐसी भेदभावपूर्ण नीति पर चल रहे हैं। जबकि हकीकत यह है कि जब तक दुनिया के किसी भी कोने में कोरोना का संक्रमण रहेगा, इसके खिलाफ हमारी लड़ाई अधूरी रहेगी। दरअसल, इसका वायरस लगातार म्यूटेट हो रहा है और अधिक घातक रूप में सामने आ रहा है। किसी भी तरह का भेदभाव स्थिति सामान्य होने में और देरी ही करेगा। साथ ही दुनिया की अर्थव्यवस्था को पटरी पर आने में उतना ही अधिक वक्त लगेगा। यही वजह है कि मंगलवार को भारतीय विदेश मंत्रालय ने ब्रिटेन को चेताया कि यदि उसने कोविशील्ड वैक्सीन को मान्यता देने में भेदभाव किया तो जवाबी कार्रवाई की जायेगी। विदेश सचिव ने इसे भेदभावपूर्ण बताया। उन्होंने कहा कि यह भारत के ‘पारस्परिक उपाय करने’ के अधिकार के भीतर आता है। इस फैसले से ब्रिटेन की यात्रा करने वाले भारतीय नागरिकों को भारी परेशानी होती है। भारत ने ब्रिटेन के नये विदेश सचिव के सामने इस मुद्दे को मजबूती से उठाया है। निस्संदेह भारत को ब्रिटेन के दोहरे मापदंडों का प्रतिकार करना चाहिए। यह विडंबना ही है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन न तो कोरोना वायरस की उत्पत्ति का अंतिम रूप से पता लगा पाया है और न ही विकसित देशों के टीकाकरण को लेकर भेदभाव पर कोई कार्रवाई कर पाया है। 

2.एमएसपी को कानूनी दर्जा!

यह भारत सरकार के भरोसेमंद सूत्रों की ख़बर है। मीडिया के प्रमुख हिस्से में भी प्रकाशित हुई है, लिहाजा उसी आधार पर हम विश्लेषण कर रहे हैं। अलबत्ता कृषि और किसानों के संदर्भ में यह बेहद महत्त्वपूर्ण विषय है। किसानों की 23 फसलों के लिए सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की घोषणा करती रही है। बीती 8 सितंबर को भी एमएसपी की दरें बढ़ाई गई हैं। ख़बर यह है कि भारत सरकार एमएसपी को कानूनी दर्जा देने पर गंभीर विचार कर रही है। स्पष्ट कारण है कि फरवरी, 2022 से लेकर साल के अंत तक महत्त्वपूर्ण राज्यों में विधानसभा चुनाव हैं। उप्र, उत्तराखंड, गुजरात और हिमाचल आदि राज्यों में भाजपा की ही सरकारें हैं। सबसे महत्त्वपूर्ण चुनाव उप्र का है, जहां किसान और जाट समुदाय भाजपा से बेहद नाराज़ हैं, जबकि 2019 के लोकसभा चुनाव में इसी समुदाय के करीब 91 फीसदी वोट भाजपा के पक्ष में आए थे। किसान चुनाव के तमाम समीकरणों को बदल सकते हैं। चूंकि दिल्ली की सीमाओं पर आंदोलित किसानों के धरने-प्रदर्शन को करीब 10 माह बीत चुके हैं, लिहाजा सरकार के नीतिकारों का मानना है कि यदि एमएसपी को कानूनी दर्जा देने की घोषणा कर दी जाती है और उसे तुरंत प्रभाव से लागू कर दिया जाता है, तो कमोबेश आंदोलन शांत हो सकता है। किसानों के एक तबके का मानना है कि एमएसपी का कानूनी दर्जा उनकी समस्याओं का बुनियादी समाधान है।

 विवादास्पद कानूनांे में उचित संशोधनों के लिए भारत सरकार के साथ बातचीत की जा सकती है। किसानों का दूसरा तबका एमएसपी कानून का सम्यक अध्ययन करने के बाद कोई फैसला लेने का पक्षधर है। तीसरा तबका कुछ आक्रामक है और एमएसपी के कानूनी दर्जे को भी ‘भ्रामक’ और ‘धोखा’ करार दे रहा है, क्योंकि उससे सरकारी खरीद का दायरा नहीं बढ़ेगा, लिहाजा वह विवादित कानूनों को रद्द करने तक आंदोलन को वापस लेने के बिल्कुल भी पक्ष में नहीं है। उन्होंने ऐसी घोषणा भी कर दी है। सर्वोच्च न्यायालय ने तीन विशेषज्ञों की जो समिति बनाई थी और उसने जितने भी किसान संगठनों या निजी तौर पर किसानों से बातचीत की थी, उनमें 100 फीसदी का यह आग्रह था कि सरकार एमएसपी को कानूनी दर्जा दे। बेशक उनमें से ज्यादातर किसान आंदोलित नहीं हैं। यह तथ्य भी बेहद गौरतलब है, हालांकि अधिकृत तौर पर सार्वजनिक नहीं किया गया है। बहरहाल सरकार का नया सिरदर्द यह है कि आरएसएस के सहयोगी संगठन-भारतीय किसान संघ-के किसान भी आंदोलन के रास्ते पर उतर आए हैं और अपनी भावी रणनीति पर विचार कर रहे हैं। वे 500 से अधिक जिलों में धरने-प्रदर्शन कर चुके हैं। उनकी बुनियादी मांगें हैं कि सरकार फसलों के लाभकारी मूल्य में बढ़ोतरी करे और सरकारी खरीद का दायरा भी बढ़ाए। इस संदर्भ में केंद्र की शांता कुमार समिति का निष्कर्ष था कि एमएसपी का फायदा सिर्फ  छह फीसदी किसानों को ही मिलता है। वे ऐसे किसान हैं, जो व्यापक स्तर पर मंडियों में अपनी फसल बेचते हैं।

 उनमें छोटे किसान शामिल नहीं हैं। समिति ने भारतीय खाद्य निगम के पुनर्गठन की भी सिफारिश की थी। आज करीब 10 फीसदी किसान एमएसपी से लाभान्वित होंगे। यानी करीब 90 फीसदी किसानों को उनकी फसलों पर एमएसपी नसीब नहीं है, लिहाजा एमएसपी का कानूनी दर्जा उन किसानों के लिए बहुत फायदेमंद साबित हो सकता है। दूसरी तरफ नौकरशाही और सरकार में ऐसी नीतियां बनाई जा रही हैं, ताकि गांवों में बसे किसान शहरों की ओर आएं। बेशक शहर में वे रिक्शा चलाएं अथवा मजदूरी करें। सरकार का एक वर्ग खेती को सिकोड़ना चाहता है। न जाने इसके पीछे क्या दर्शन है? सरकारी खरीद में गेहूं और धान की 40 फीसदी फसल तो एमएसपी पर सरकार ले लेती है, लेकिन सरकारी आंकड़े ही खुलासा कर रहे हैं कि ज्यादातर दालों की सरकारी खरीद ‘शून्य’ है। कुछ दालें खरीदी जाती हैं, वे भी एक फीसदी से कम ही होती हैं, लिहाजा सवाल है कि यदि एमएसपी को कानूनी दर्जा दिया जाता है, तो क्या सरकार अपनी व्यवस्था में बदलाव करेगी? आयात-निर्यात नीतियों में भी संशोधन किया जाएगा और दालों की खरीद भी पर्याप्त की जाएगी? क्या एमएसपी का कानूनी दस्तावेज तैयार करने से पहले किसान संगठनों की भी राय ली जाएगी? बहरहाल एमएसपी का गठन 1967-68 में किया गया था, जो आज तक अव्यावहारिक है। नतीजतन किसान गरीब हैं। क्या अब कानूनी दर्जा देते हुए भी राजकोषीय घाटे सरीखे बहाने तो नहीं बनाए जाएंगे? एमएसपी को कानूनी दर्जा देश हित में ही होगा।

3.हवाला, हालात और हवालात

हिमाचल की खिड़कियां अब सूर्योदय के साथ सूर्यास्त भी देखती हैं, इसलिए तस्वीरों के शीशे टूट रहे हैं। मंडी पुल के नीचे दो नवजात बच्चियां तड़प-तड़प कर जान दे देती हैं। मां शब्द का उच्चारण जिनके तालू पे अटका होगा या जिनके ओंठों की नन्हीं मुस्कराहट को मां ने समझा होगा, वे हालात दुश्मन हैं या ये हालात अब समाज को ही हवालात तक ले जाएंगे। तर्कों की शेखियों में जो समाज अपने आईने तोड़ता रहा हो, वहां सरेआम पुल के नीचे अपनी ही औलाद की अर्थी सजाती मां की घिनौनी तस्वीर को कौन तोड़ेगा। हर दिन के अपराध की चित्रकथा में, समाज का खोखलापन बारूद बन कर जलता है और इस तरह हिमाचल के वजूद से ‘भोलेपन’ का बहाना भी गायब हो जाता है। बैजनाथ के एक स्कूल का मुख्याध्यापक अपने काम के दबाव में खुदकुशी कर लेता है, तो प्रश्नों के चबूतरे पर अकालग्रस्त विभाग की छवि को अपराधी माना जाए या हम खुश हैं कि वहां मरने वाला कोई अपना नहीं था

। हम खुश हैं कि तकीपुर कालेज में विज्ञान की कक्षाएं शुरू हो गईं या गांव तक बिना सवारियों के भी बस चल पड़ी। रोजाना खबरों की सुर्खियां हिमाचल के कान खींचती हैं, लेकिन हमने राजनीतिक अखाड़ों की संगत में सामुदायिक संवेदना की आवाज ही सुनना बंद कर दी। सोशल मीडिया के जरिए बढ़ता अपराध हमारे रिश्तों को तार-तार करने लगा है या जीवन भर की कमाई को झाड़ने लगा है। शिमला में दो बच्चों की मां की फेसबुक के माध्यम से हुई दोस्ती अगर बीच चौराहे में लुट जाती है, तो प्रगतिशीलता के द्वंद्व में परिवारों की हैसियत कितनी बचेगी। हर दिन रिश्तेदारी के आंगन में किसी नन्हें से फूल के खिलाफ शारीरिक और मानसिक अत्याचार की डोरी पहन कर हिमाचल केवल अपने अपराध जगत को बढ़ा रहा है। जब घर की दीवारें भी अपराध में संलिप्त हो जाएं, तो प्रदेश की अमानत में कितना भोलापन बचेगा। खुदा के लिए हिमाचल को अब भोलेपन के तख्त पर मत देखिए। सोलन के पहाड़ों से पूछना कि जब उनकी आत्मा चीर कर इमारतों के खंजर उगाए थे, तो क्या हिमाचल भोला था।

 ऊना, सिरमौर, कांगड़ा व हर जिला की खड्डों व नदियों से पूछना कि हर दिन अवैध खनन करने वाले कितने भोले हैं। हर दिन बीबीएन की फैक्ट्रियों में बनती दवाइयों से जब कोई घटिया निकलती है, तो क्या हमारा औद्योगीकरण भोला नजर आता है। आश्चर्य तो यह है कि राज्य के खजाने को अधिक से अधिक शराब बेच कर चलाना पड़ता है और इसलिए हमने तो कोविड काल में भी लाखों-करोड़ों पैग डकार लिए। हम इतने भोले हैं कि भोले की चिल्म यहीं भरी जाती है। मलाणा क्रीम का जनक किस भोलेपन से हुआ, हमें सोचने की फुर्सत नहीं। आश्चर्य यह कि मरने पर भी हिमाचल ने अपना भोलापन खो दिया। बड़सर की पंचायत सेठवीं में श्मशानघाट के कंधे अब अर्थी उठाने से मना करते हैं। एक सेवानिवृत्त अधिकारी अपनी मिलकीयत की पैमाइश में इतना आगे बढ़ जाता है कि वहां लाश को जलाने की परंपरा गिड़गिड़ाने को मजबूर हो जाती है। हम कैसा समाज बन गए कि हमारी आंखों के सामने बच्चियों के रेप की घटनाएं घूरती हैं और इसी श्रृंखला में खुद मां ही अगर अपने दूध में जहर घोल कर बच्चों को जन्म देने लगे, तो मंडी का निर्जीव पुल भी कहीं रोता होगा। हम हिमाचली काबिल हो गए। हम रिश्वत देकर किसी भी सरकारी प्रक्रिया खरीद सकते हैं, लेकिन यह नहीं सोचते कि रिश्वतखोरी के मामले में जब कोई पकड़ा जाता है, तो हमारे हाथ भी अपराध से सने होते हैं। कभी कुल्लू के अपराध की पोटली खुलती है, तो किसी युवा के हाथ पर दो ढाई किलो चरस के सौदे में हम सब बिक जाते हैं। नशा हमारी गलियों तक आ पहुंचा है। अतः हम अपराध तंत्र को नजरअंदाज करके भोले नहीं हो सकते।

4.तालिबान में तकरार

अफगानिस्तान में तालिबान की वापसी से जुड़ी जितनी भी आशंकाएं जताई गई थीं, वे सब सही साबित हो रही हैं। खबरों के मुताबिक, अंतरिम सरकार में उप-प्रधानमंत्री मुल्ला अब्दुल गनी बरादर और सरकार में शामिल हक्कानी नेटवर्क के बीच गहरे मतभेद उभर आए हैं। कहा तो यह तक जा रहा कि राष्ट्रपति भवन में आयोजित एक बैठक के दौरान दोनों गुटों के बीच जमकर मारपीट हुई और गोलियां चलीं, जिनसे कुछ लोग जख्मी हुए। अब पश्चिमी मीडिया की खबरें संकेत दे रही हैं कि हक्कानी गुट ने बरादर को अगवा कर लिया है। सब जानते हैं कि कतर की राजधानी दोहा में अमेरिका-तालिबान वार्ता में तालिबान का प्रतिनिधित्व अब्दुल गनी बरादर कर रहे थे और दोनों के बीच हुए करार में तालिबान ने एक ऐसी समावेशी सरकार पर हामी भरी थी, जिसमें अफगानिस्तान के सभी जातीय समूहों, तबकों और क्षेत्रों की नुमाइंदगी होगी। पर हक्कानी नेटवर्क अब आईएसआई के इशारे पर पाकिस्तान विरोधी तत्वों को सत्ता में प्रभावी होने से रोकने में जुटा है।

विडंबना यह है कि इस संभावित हालात से अमेरिका व नाटो समेत पूरी दुनिया वाकिफ थी, फिर भी तालिबान और उसके मददगार देशों-संगठनों पर वह कोई दबाव नहीं बना सकी। बहरहाल, जिस समय पश्चिमी मीडिया में बरादर के अगवा होने का अंदेशा जताया जा रहा था, लगभग उसी वक्त तालिबान सरकार के प्रवक्ता जबीउल्लाह मुजाहिद ने कुछ जातीय समुदायों के नए मंत्रियों के नामों की घोषणा की है, जिनमें एक भी महिला का नाम शामिल नहीं है। मुजाहिद ने फिर वही पुराना राग दोहरा दिया कि औरतों को सरकार में शामिल करने के मसले पर विचार  हो रहा है। छूट गए समूहों की नुमाइंदगी के लिए मंत्रिमंडल के अगले विस्तार में औरतों को शामिल किया जा सकता है। साफ है, तालिबान अपनी पुरातन सोच से डिगने को तैयार नहीं है और अफगानिस्तान की स्थितियां लगातार गहन अराजकता की ओर बढ़ रही हैं। तालिबान सरकार के रक्षा मंत्री मुल्ला याकूब आईएसआई की रोज-रोज की मुदालखत से बेजार हो गए हैं, तो अब्दुल गनी बरादर को समावेशी सरकार के वादे को लागू कराने के लिए अपने ही संगठन के लोगों से लड़ना पड़ रहा है। बरादर अपेक्षाकृत उदार माने जाते हैं और वह अच्छी तरह जानते हैं कि तालिबान हुकूमत की वैश्विक मान्यता इसी बात पर निर्भर है कि वह कितनी तेजी से मुल्क में व्यवस्था कायम करती है और अमेरिका के साथ हुए समझौते की शर्तें लागू करती है। आम अफगानों की जिंदगी दिनोंदिन बदहाल हो रही है और दुनिया के देश चाहकर भी उनकी मदद करने में खुद को असमर्थ पा रहे हैं। यह स्थिति इस पूरे क्षेत्र के लिए बहुत चिंताजनक है। अब जब संयुक्त राष्ट्र महासभा की बैठक शुरू हो चुकी है, तब दुनिया को इस मसले पर पूरी गंभीरता से विचार करना चाहिए, ताकि अराजक अफगानिस्तान आतंकियों का फिर से अड्डा न बन सके, बल्कि हक्कानी नेटवर्क जैसे आतंकी संगठनों के पर कतरने के लिए इस्लामाबाद पर शिकंजा कसे जाने की जरूरत है। अगर अफगानिस्तान में तालिबानी समूह आपस में उलझते गए, तो उनके संघर्ष का खामियाजा स्थानीय नागरिकों को तो भुगतना पडे़गा ही, पड़ोसी देशों की भी सिरदर्दी बढ़ती जाएगी, खासकर भारत जैसे देशों को इसके मद्देजनर अतिरिक्त सुरक्षा व्यय करने पड़ेंगे।

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