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EDITORIAL TODAY (HINDI)

इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है।

1.इस्लामी हुकूमत के मंसूबे

अफगानिस्तान में मुसलमान को मुसलमान ही मार रहा है। पाकिस्तान के रूप में एक और मुसलमान हालात को सुलगा रहा है। यहां तक कि बमों और मिसाइलों से हवाई हमले भी कर रहा है। एक और इस्लामी देश ईरान ने सख्त आपत्ति दर्ज कराई है और साफ कहा है कि वह लोकतांत्रिक तौर पर चुनी और बनी सरकार को ही मान्यता देगा। पाकिस्तान पूरी तरह से दहशतगर्द की भूमिका में है। उसकी फौज, खुफिया एजेंसी आईएसआई और कुछ आतंकी संगठन अफगानिस्तान में लड़ाई लड़ रहे हैं अथवा जंग में सक्रिय भूमिका निभा रहे हैं! आईएसआई चीफ लेफ्टिनेंट जनरल फैज़ हमीद तो काबुल में हैं, कुछ कमांडर भी जंग को संचालित कर रहे हैं। शायद सेना प्रमुख जनरल कमर बाजवा भी काबुल में पहुंच जाएं! तालिबानी अफगानिस्तान में जो घटनाक्रम जारी है, उससे एशिया का यह क्षेत्र बुरी तरह प्रभावित होगा।

भारत के सैन्य सूत्रों का दावा है कि कश्मीर या आसपास के इलाके में लश्कर, जैश और अलबदर के 200 से ज्यादा आतंकी लामबंद हो चुके हैं। जाहिर है कि आतंकी हमला ही उनका मकसद और मंसूबा होगा! इस दौरान इस्लाम और कुरान की अलग-अलग व्याख्याएं की जा रही हैं। भविष्य की रणनीति भी स्पष्ट हो रही है। आखिर किसे इस्लाम माना जाए? यह सवाल बेहद महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि आत्मघाती दहशतगर्दी उसी से प्रेरित है। जो मुसलमान मर रहा है, जो मुसलमान को मार रहा है और जो तीसरा मुसलमान हालात को भड़काने-हिंसक बनाने में जुटा है, इस्लाम के मुताबिक किसे सच्चा मुसलमान माना जाए? कौन-सा पक्ष इस्लामी तौर पर मज़हबी है? इस संदर्भ में पाकिस्तान की प्रख्यात ‘लाल मस्जिद के मौलवी के बयान बेहद विवादास्पद हैं, क्योंकि उन्होंने इस्लाम की स्थापित मान्यताओं के उलट बोला है। मौलाना अब्दुल अज़ीज़ का प्रलाप है कि अफगानिस्तान को फतेह करने के बाद अब ताजिकिस्तान, उज़बेकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान और सऊदी अरब को फतेह करना है।

हमारे जेहादी दुनिया भर में इस्लामी हुकूमत कायम करेंगे। तालिबान के साथ 1000 फिदायीन लड़ रहे हैं। हम अमरीका, ब्रिटेन, स्पेन आदि देशों तक भी इस्लामी हुकूमत तय करेंगे। कुरान में ही लिखा है कि एक मकसद के लिए दहशतगर्द बनें। कश्मीर में भी अफगानिस्तान जैसा जेहाद जरूरी है। मौलाना ने यह दिमागी प्रलाप किया है, तो क्या यह सब कुछ प्रायोजित था? ‘लाल मस्जिद पर तालिबान का झंडा क्यों लहरा रहा था? क्या प्रधानमंत्री इमरान खान की जानकारी में था? यह वीडियो दुनिया भर में वायरल हुआ है। बाद में पाकिस्तान की पुलिस ने झंडे को हटा दिया। क्या मौलाना और हुकूमत के दरमियान कोई सांठगांठ थी? क्या इमरान खान के पाकिस्तान का इस्लाम भिन्न है? क्या आत्मघाती बम बनना भी इस्लामी है? भारत के मौलाना और इस्लामी स्कॉलर फिदायीन बनकर बम-विस्फोट करना ‘हलाकत मानते हैं।

वे पाकिस्तान के मौलाना के बयानों को ‘ज़हरीला भी करार दे रहे हैं। उनका मानना है कि मानव-बम बनने वाले जहन्नुम में जाएंगे। इस्लाम अमन, प्यार-मुहब्बत, इंसानियत और बराबरी का संदेश देनेे वाला मज़हब है। कुरान की व्याख्या करने वाले ज्यादातर लोगों ने दरअसल यह पवित्र ग्रंथ ही नहीं पढ़ा। ‘लाल मस्जिद के मौलवी धमकी के अंदाज़ में भी कहते हैं-‘इस्लाम कबूल करो या तुम्हारी विदाई तय है। दरअसल हम इस्लाम और कुरान के विद्वान जानकार नहीं हैं, लेकिन मौलवी ने जो खतरनाक जुबां बोली है, वह मज़हबी तौर पर विध्वंसक है। दुनिया में इस्लाम क्या अफगानिस्तान और तालिबान की तरह हुकूमत तय कर सकता है? हम मानते हैं कि ज्यादातर इस्लामी देश भी इस मुद्दे पर पाकिस्तान के मौलवी से सहमत नहीं होंगे। दुनिया पर किसी भी तरह के जेहाद और आतंकवाद से कब्जा नहीं किया जा सकता। इतनी ताकत आतंकियों और पाकिस्तान में नहीं है। दरअसल मौलवी नहीं, पाकिस्तान को विश्व स्तर पर तलब किया जाना चाहिए और पूछना चाहिए कि वह इस मौलवी पर क्या कार्रवाई करेगा।

2.पुनर्वास का ढांचा बनाएं

विकास के पांव जहां तक चिन्हित होते हैं, वहां सियासी और सामाजिक संतुलन की अति आवश्यकता है। नेरचौक-मनाली फोरलेन की बिसात पर खड़े आंदोलन ने अब पठानकोट-मंडी फोरलेन की राह पकड़ी है, तो आंदोलनरत जनता के सवालों से रू-ब-रू तलखियों का समाधान चाहिए। आरंभिक विकास की महबूबा की तरह गांव, देहात और शहर के लिए यह इश्क की तरह था, लेकिन अब बड़े दायरे में जब मंजिलें मीलों माप रही हैं, तो सामाजिक योगदान के इम्तिहान में तख्तियां बदल रही हैं। ऐसे में विकास की बड़ी परिकल्पना को या तो रद्द कर दिया जाए या वन संरक्षण अधिनियम के कुछ ताले टूटने चाहिएं। खास तौर पर ऊना, बिलासपुर, सिरमौर, कांगड़ा, हमीरपुर, चंबा, मंडी जैसे जिलों के कम ऊंचाई के वन क्षेत्रों से विकास के सार्वजनिक समाधान आवश्यक हो जाते हैं। विकास कोई ऐसी अवधारणा नहीं कि आंखों पर पट्टी बांध कर पूरा कर लिया जाए या सामाजिक आवरण से दूरी बना कर इसे मुकम्मल किया जा सकता है।

विकास अपने मानदंडों की आड़ी-तिरछी रेखाएं नहीं कि सिर्फ यही आधार बना लिया जाए कि जहां जमीन उपलब्ध हो, वहीं इसका ठौर बना दिया जाए। विकास के नए नक्शे पर गांव-शहर की मजदूरी, व्यापार या आर्थिक गतिविधियां बदलेंगी, तो इसी के साथ दिशाएं भी बदलेंगी यानी नेरचौक से घूमती फोरलेन ने विकास के पहलू में नए समाज का शृंगार करना भी शुरू किया है। इसी तरह पठानकोट-मंडी सड़क पर लग रही फोरलेन की बुर्जियां अगर आज समाज के प्रभावित पक्ष को आंदोलित कर रही हैं, तो कल आर्थिकी का नया कारवां भी इसी के ऊपर से गुजरेगा। बहरहाल कल तक जनप्रतिनिधि अपने क्षेत्र की रचना में स्कूल, कालेज, अस्पताल या कार्यालय ढो रहे थे, तो अब विस्थापन के आक्रोश का सार्थकता के साथ सामना करना होगा। मंडी-पठानकोट या धर्मशाला-शिमला फोरलेन की आवश्यकता को हमारी जरूरतों ने ही अनिवार्य बनाया है, अत: इसे कबूल करने का सामथ्र्य व समाधान तैयार करना होगा। विकास के लिए विस्थापन अगर अनिवार्य होने लगा है, तो पुनर्वास का राज्य स्तरीय नक्शा और मुआवजे की भरपेट सहमति भी पैदा करनी होगी। अब हर इंच के विकास का व्यय है, तो सामाजिक पुनर्वास से भी विकास का नया ढांचा विकसित करना है। अगर फोरलेन से विस्थापन या रोजगार की अनिश्चितता पैदा हो रही है, तो इसके एवज में पुनर्वास के विकल्पों में नई आर्थिकी का संचार करना है। जाहिर तौर पर हिमाचल को अपने आर्थिक हितों की दीवार हटाने के लिए ऐसी वन भूमि को पुन: विकास भूमि के लिए हासिल करना होगा, जो सात जिलों के निचले इलाकों में कम ऊंचाई पर स्थित है। जंगल से विकास भूमि हासिल करके ही विस्थापन का पुनर्वास और पुनर्वास से नई आर्थिकी विकसित होगी।

हिमाचल में सड़क, रेल व हवाई अड्डों के विस्तार-स्थापना के लिए केवल केंद्रीय योजनाएं ही नहीं, बल्कि पुनर्वास के लिए पर्वतीय राज्य की प्राथमिकता चाहिए। मौजूदा 66 फीसदी वन भूमि के तहत आते हिमाचल की भौगोलिक जरूरतें शेष 34 प्रतिशत जमीन से कैसे पूरी होंगी। वन भूमि का सर्वेक्षण करवाएं तो मालूम होगा कि कहीं ऐसी जमीन इनके तहत आ गई है, जिसकी उपयोगिता नागरिक सुविधाओं, विकास की जरूरतों तथा प्रगति के हिसाब से कहीं अधिक उपयोगी होगी। ऐसे में वन व साधारण-सार्वजनिक भूमि का अनुपात 50:50 करना चाहिए। आश्चर्य यह भी कि कई किसानों व बागबानों की निजी जमीन भी वास्तव में ढांग या खाई जैसी ही पाई जाती है, जबकि इसके मुकाबले जंगल की संपत्तियों में हिमाचल के आगे बढ़ती उम्मीदें कैद हैं। खुशी का विषय यह कि हिमाचल सरकार ने समिति गठित करके फोरलेन मुआवजे की फाइल पुन: खोलने की इच्छा प्रकट की है। सर्किल रेट से चार गुना मुआवजे की मांग का एक पक्ष हो सकता है, लेकिन हकीकत में विस्थापन का मूल्यांकन और उसके हिसाब से पुनर्वास व नए जीवन की शुरुआत का मसला तभी हल होगा, अगर प्रदेश भर में कम से कम छह नए निवेश केंद्र तथा इतने ही सेटेलाइट टाउन बनाकर विस्थापितों को आगे बढऩे का रास्ता दिखाया जाए।

3.दोहरी चुनौती

पहले ही कोरोना की मार से बुरी तरह प्रभावित केरल की मुसीबतें कम होने का नाम नहीं ले रही हैं। यहां तेजी से कोरोना संक्रमण हुआ है। प्रतिदिन संक्रमितों की संख्या पूरे देश के कुल आंकड़ों के आधे से अधिक है। दरअसल, पिछले माह त्योहारों के दौरान कोरोना पाबांदियों में छूट दिये जाने के बाद कोरोना संक्रमण के मामलों में अप्रत्याशित तेजी आई है। हालांकि, केरल सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के उन निर्देशों की अवहेलना की थी, जिसमें कोरोना कर्फ्यू में तीन दिन की छूट न देने को कहा गया था। कभी पूरे देश में कोरोना नियंत्रण की मिसाल बने केरल में फिर कोरोना संकट भयावह हो गया। दरअसल, केरल अब दोहरे संकट में घिरा है। केरल के कोझिकोड में खतरनाक निपाह वायरस के चपेट में आने से एक बारह वर्षीय लड़के की मौत हुई है। ऐसे में कोरोना संकट से मुक्त होने की जद्दोजहद में जुटे केरल की मुश्किलें बढ़ गई हैं। यह एक ऐसी आपदा की दस्तक है, जिसका दुनिया में कोई इलाज मौजूद नहीं है और जिसमें मृत्यु दर बेहद अधिक है। हालांकि, अच्छी बात यह है कि संकट की आहट पाते ही केंद्रीय विशेषज्ञ चिकित्सकों का दल केरल पहुंचकर समन्वय स्थापित कर रहा है। वहीं राज्य सरकार आपातकालीन उपायों के तहत मरीज के संपर्कों की तलाश, सचेत करने तथा पृथकवास में तेजी दिखा रही है। किशोर के संपर्क में आने वाले लोगों की पहचान की गई है, उनके घरों के आसपास सतर्कता बढ़ायी गई है। चिंता की बात यह है कि निपाह वायरस से संक्रमितों में मृत्युदर सत्तर फीसदी है और इसकी कोई वैक्सीन उपलब्ध नहीं है। ऐसे में बेहद सतर्कता के साथ इसके प्रसार को शुरुआती दौर पर ही रोका जाना चाहिए, ताकि यह फिर महामारी का रूप ग्रहण न कर सके।

बीते वर्षों में केरल सरकार इस वायरस को स्थानीय स्तर पर ही रोक पाने में सफल हुई थी। ऐसे में समय रहते इसके संक्रमण को रोकने के लिये सतर्कता ही कारगर उपचार है। वर्ष 2019 में राज्य ने समय रहते इस वायरस पर काबू पाया था। दरअसल, पहले रोगी के लक्षणों का निदान जरूरी होता है और फिर संक्रमण नियंत्रण के प्रोटोकॉल को लागू करना। निस्संदेह, पिछले अनुभव का लाभ केरल सरकार के लिये मददगार साबित होगा। वर्ष 2018 में राज्य में सामने आये निपाह वायरस के 18 मामलों में सत्रह लोगों की जान चली गई थी, जिसके बाद राज्य सरकार ने भविष्य की चुनौतियों के लिये बीते अनुभव के आधार पर रणनीति तैयार की। वैसे तो कोविड-19 की चुनौती से जूझ रहे केरल में मास्क पहनने, सुरक्षित शारीरिक दूरी का पालन करने के साथ ही संक्रामक महामारी के निवारक उपायों के प्रति व्यापक जागरूकता आई है। केरल से लगे राज्यों की सीमाओं को सील करने की जरूरत है, इस दिशा में तमिलनाडु में खासी सतर्कता बरती जा रही है। निस्संदेह अन्य राज्यों को भी सतर्क रहने की जरूरत है। साथ ही जिन दो लोगों में निपाह वायरस के संक्रमण की पुष्टि हुई है, उनकी व्यापक देख-रेख की जरूरत है। वैसे नेशनल सेंटर फॉर डिजीज कंट्रोल की टीम राज्य सरकार के स्वास्थ्य विभाग को तकनीकी सहयोग उपलब्ध करा रही है, फिर भी सतर्क रहने की जरूरत है। वहीं राज्य सरकार भी संक्रमण से मरे किशोर के संपर्क में आये लोगों पर व्यापक निगरानी रखे हुए है। जिन दो लोगों में संक्रमण के लक्षण दिखे हैं, वे किशोर के संपर्क में आये उन बीस लोगों में शामिल थे, जो जोखिम वाली स्थिति में माने जा रहे थे। दरअसल, मलेशिया में 1998 में निपाह नामक जगह में मिलने वाले वायरस को विश्व स्वास्थ्य संगठन तेजी से उभरते वायरस के रूप में देखता है। जिसके वाहक के रूप में चमगादड़ व सुअरों को माना जाता रहा है। बाद में इसके इंसान से इंसान में फैलने का मामला प्रकाश में आया। जिसमें लोग तेज बुखार के बाद सांस से जुड़ी गंभीर बीमारी तथा जानलेवा इंसेफ्लाइटिस के शिकार बने। जिसमें दिमाग को नुकसान होने की आशंका बनी रहती है।

4.शिक्षा पर कोविड की मार

कोविड-19 ने मानव समाज को कितना पीछे धकेला है, इसके सटीक आकलन में अभी वर्षों लगेंगे, क्योंकि महामारी पर निर्णायक नियंत्रण का कोई सिरा फिलहाल ठीक-ठीक दिख नहीं रहा और दुनिया का एक बड़ा व बेबस हिस्सा अब भी इसकी वैक्सीन के इंतजार में है। पर इसके जो तात्कालिक असर दिख रहे हैं, वही काफी दिल दुखाने और चिंतित करने वाले हैं। भारत के संदर्भ में मशहूर अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज, रीतिका खेड़ा और शोधार्थी विपुल पैकरा का एक ताजा सर्वेक्षण बताता है कि लंबे अरसे तक स्कूलों के बंद रहने की सबसे बड़ी कीमत ग्रामीण इलाकों के गरीब बच्चों ने चुकाई है। कक्षा एक से आठवीं तक के बच्चों के बीच किए गए इस सर्वे के मुताबिक, गांवों में रहने वाले 37 प्रतिशत बच्चों ने इस अवधि में बिल्कुल पढ़ाई नहीं की, जबकि सिर्फ आठ फीसदी बच्चे नियमित रूप से ऑनलाइन पढ़ाई कर सके। शहरी क्षेत्र के आंकडे़ भी कोई बहुत राहत नहीं देते। यहां भी सिर्फ 24 प्रतिशत बच्चे नियमित रूप से ऑनलाइन शिक्षा ग्रहण कर सके।

ये आंकडे़ चौंकाने वाले नहीं हैं, अलबत्ता तकलीफदेह जरूर हैं। करीब डेढ़ साल तक देश भर में स्कूल बंद रहे। इस दौरान ऑनलाइन पढ़ाई की वैकल्पिक व्यवस्था की गई, मगर इसकी जटिलताओं व सीमाओं को देखते हुए और भी बहुत कुछ करने की जरूरत थी। सरकार और शिक्षा तंत्र, दोनों इस बात से बखूबी वाकिफ थे कि जो बच्चे दोपहर के भोजन के आकर्षण में स्कूल आते हैं या जिनके मां-बाप बमुश्किल उनकी फीस जोड़ पाते हैं, उनके पास स्मार्टफोन, इंटरनेट, बिजली जैसी सुविधाएं कहां होंगी! ऐसे में, उनके लिए इनोवेटिव रास्ते निकालने के वास्ते स्थानीय शिक्षा-तंत्र को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए था। खासकर पूर्ण लॉकडाउन के फौरन बाद। लेकिन सवाल सरोकार का है, और दुर्योग से शिक्षा इसमें बहुत ऊपर कभी नहीं रही। इस मद में बजटीय आवंटन और स्कूलों-शिक्षकों की कमी ही बहुत कुछ कह देती है। इसमें कोई संदेह नहीं कि सरकार की पहली प्राथमिकता संक्रमण रोकने की थी, और यह होनी भी चाहिए थी। पर जिस तरह उसने लोगों को भूख से मरने नहीं दिया, चुनावों में शिक्षकों की सेवाएं लीं, वह इस स्थिति से भी बचने की राह तलाश सकती थी। बहरहाल, चुनौती बड़ी है, क्योंकि बच्चों की एक विशाल संख्या सीखने में काफी पिछड़ गई है। सर्वे के निष्कर्षों में कहा गया है, कक्षा पांच के काफी बच्चों को दूसरे दरजे का पाठ पढ़ने में कठिनाई महसूस होने लगी है। अब जब तमाम सावधानियों के साथ स्कूल खुल रहे हैं, तब हमारे पूरे शिक्षा तंत्र की काबिलियत इसी से आंकी जाएगी कि वह इन बच्चों के नुकसान को किस तरह से न्यूनतम कर पाता है। सरकारों को शिक्षकों से अब पढ़ाई-लिखाई से इतर कोई भी कार्य लेने से परहेज बरतना चाहिए। उन्हें यह दायित्व सौंपना चाहिए कि इस अवधि में जिन बच्चों ने स्कूल से अपना नाता तोड़ लिया है, उन्हें वापस जोड़ा जाए। आज देश में बेरोजगारी का जो आलम है, उसे देखते हुए अल्प-शिक्षित पीढ़ियां भविष्य में बड़ा बोझ साबित होंगी। प्रधानमंत्री ने कल ही ‘शिक्षक पर्व’ का उद्घाटन करते हुए कहा कि शिक्षा न सिर्फ समावेशी होनी चाहिए, बल्कि समान होनी चाहिए। पर ताजा सर्वे इस लक्ष्य के विपरीत हालात दिखा रहा है, जहां गरीब-अमीर, गांव-शहर की शिक्षा में काफी असमानताएं हैं।

 

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EDITORIAL TODAY (HINDI)

इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है।

1.इस्लामी हुकूमत के मंसूबे

अफगानिस्तान में मुसलमान को मुसलमान ही मार रहा है। पाकिस्तान के रूप में एक और मुसलमान हालात को सुलगा रहा है। यहां तक कि बमों और मिसाइलों से हवाई हमले भी कर रहा है। एक और इस्लामी देश ईरान ने सख्त आपत्ति दर्ज कराई है और साफ कहा है कि वह लोकतांत्रिक तौर पर चुनी और बनी सरकार को ही मान्यता देगा। पाकिस्तान पूरी तरह से दहशतगर्द की भूमिका में है। उसकी फौज, खुफिया एजेंसी आईएसआई और कुछ आतंकी संगठन अफगानिस्तान में लड़ाई लड़ रहे हैं अथवा जंग में सक्रिय भूमिका निभा रहे हैं! आईएसआई चीफ लेफ्टिनेंट जनरल फैज़ हमीद तो काबुल में हैं, कुछ कमांडर भी जंग को संचालित कर रहे हैं। शायद सेना प्रमुख जनरल कमर बाजवा भी काबुल में पहुंच जाएं! तालिबानी अफगानिस्तान में जो घटनाक्रम जारी है, उससे एशिया का यह क्षेत्र बुरी तरह प्रभावित होगा।

भारत के सैन्य सूत्रों का दावा है कि कश्मीर या आसपास के इलाके में लश्कर, जैश और अलबदर के 200 से ज्यादा आतंकी लामबंद हो चुके हैं। जाहिर है कि आतंकी हमला ही उनका मकसद और मंसूबा होगा! इस दौरान इस्लाम और कुरान की अलग-अलग व्याख्याएं की जा रही हैं। भविष्य की रणनीति भी स्पष्ट हो रही है। आखिर किसे इस्लाम माना जाए? यह सवाल बेहद महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि आत्मघाती दहशतगर्दी उसी से प्रेरित है। जो मुसलमान मर रहा है, जो मुसलमान को मार रहा है और जो तीसरा मुसलमान हालात को भड़काने-हिंसक बनाने में जुटा है, इस्लाम के मुताबिक किसे सच्चा मुसलमान माना जाए? कौन-सा पक्ष इस्लामी तौर पर मज़हबी है? इस संदर्भ में पाकिस्तान की प्रख्यात ‘लाल मस्जिद के मौलवी के बयान बेहद विवादास्पद हैं, क्योंकि उन्होंने इस्लाम की स्थापित मान्यताओं के उलट बोला है। मौलाना अब्दुल अज़ीज़ का प्रलाप है कि अफगानिस्तान को फतेह करने के बाद अब ताजिकिस्तान, उज़बेकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान और सऊदी अरब को फतेह करना है।

हमारे जेहादी दुनिया भर में इस्लामी हुकूमत कायम करेंगे। तालिबान के साथ 1000 फिदायीन लड़ रहे हैं। हम अमरीका, ब्रिटेन, स्पेन आदि देशों तक भी इस्लामी हुकूमत तय करेंगे। कुरान में ही लिखा है कि एक मकसद के लिए दहशतगर्द बनें। कश्मीर में भी अफगानिस्तान जैसा जेहाद जरूरी है। मौलाना ने यह दिमागी प्रलाप किया है, तो क्या यह सब कुछ प्रायोजित था? ‘लाल मस्जिद पर तालिबान का झंडा क्यों लहरा रहा था? क्या प्रधानमंत्री इमरान खान की जानकारी में था? यह वीडियो दुनिया भर में वायरल हुआ है। बाद में पाकिस्तान की पुलिस ने झंडे को हटा दिया। क्या मौलाना और हुकूमत के दरमियान कोई सांठगांठ थी? क्या इमरान खान के पाकिस्तान का इस्लाम भिन्न है? क्या आत्मघाती बम बनना भी इस्लामी है? भारत के मौलाना और इस्लामी स्कॉलर फिदायीन बनकर बम-विस्फोट करना ‘हलाकत मानते हैं।

वे पाकिस्तान के मौलाना के बयानों को ‘ज़हरीला भी करार दे रहे हैं। उनका मानना है कि मानव-बम बनने वाले जहन्नुम में जाएंगे। इस्लाम अमन, प्यार-मुहब्बत, इंसानियत और बराबरी का संदेश देनेे वाला मज़हब है। कुरान की व्याख्या करने वाले ज्यादातर लोगों ने दरअसल यह पवित्र ग्रंथ ही नहीं पढ़ा। ‘लाल मस्जिद के मौलवी धमकी के अंदाज़ में भी कहते हैं-‘इस्लाम कबूल करो या तुम्हारी विदाई तय है। दरअसल हम इस्लाम और कुरान के विद्वान जानकार नहीं हैं, लेकिन मौलवी ने जो खतरनाक जुबां बोली है, वह मज़हबी तौर पर विध्वंसक है। दुनिया में इस्लाम क्या अफगानिस्तान और तालिबान की तरह हुकूमत तय कर सकता है? हम मानते हैं कि ज्यादातर इस्लामी देश भी इस मुद्दे पर पाकिस्तान के मौलवी से सहमत नहीं होंगे। दुनिया पर किसी भी तरह के जेहाद और आतंकवाद से कब्जा नहीं किया जा सकता। इतनी ताकत आतंकियों और पाकिस्तान में नहीं है। दरअसल मौलवी नहीं, पाकिस्तान को विश्व स्तर पर तलब किया जाना चाहिए और पूछना चाहिए कि वह इस मौलवी पर क्या कार्रवाई करेगा।

2.पुनर्वास का ढांचा बनाएं

विकास के पांव जहां तक चिन्हित होते हैं, वहां सियासी और सामाजिक संतुलन की अति आवश्यकता है। नेरचौक-मनाली फोरलेन की बिसात पर खड़े आंदोलन ने अब पठानकोट-मंडी फोरलेन की राह पकड़ी है, तो आंदोलनरत जनता के सवालों से रू-ब-रू तलखियों का समाधान चाहिए। आरंभिक विकास की महबूबा की तरह गांव, देहात और शहर के लिए यह इश्क की तरह था, लेकिन अब बड़े दायरे में जब मंजिलें मीलों माप रही हैं, तो सामाजिक योगदान के इम्तिहान में तख्तियां बदल रही हैं। ऐसे में विकास की बड़ी परिकल्पना को या तो रद्द कर दिया जाए या वन संरक्षण अधिनियम के कुछ ताले टूटने चाहिएं। खास तौर पर ऊना, बिलासपुर, सिरमौर, कांगड़ा, हमीरपुर, चंबा, मंडी जैसे जिलों के कम ऊंचाई के वन क्षेत्रों से विकास के सार्वजनिक समाधान आवश्यक हो जाते हैं। विकास कोई ऐसी अवधारणा नहीं कि आंखों पर पट्टी बांध कर पूरा कर लिया जाए या सामाजिक आवरण से दूरी बना कर इसे मुकम्मल किया जा सकता है।

विकास अपने मानदंडों की आड़ी-तिरछी रेखाएं नहीं कि सिर्फ यही आधार बना लिया जाए कि जहां जमीन उपलब्ध हो, वहीं इसका ठौर बना दिया जाए। विकास के नए नक्शे पर गांव-शहर की मजदूरी, व्यापार या आर्थिक गतिविधियां बदलेंगी, तो इसी के साथ दिशाएं भी बदलेंगी यानी नेरचौक से घूमती फोरलेन ने विकास के पहलू में नए समाज का शृंगार करना भी शुरू किया है। इसी तरह पठानकोट-मंडी सड़क पर लग रही फोरलेन की बुर्जियां अगर आज समाज के प्रभावित पक्ष को आंदोलित कर रही हैं, तो कल आर्थिकी का नया कारवां भी इसी के ऊपर से गुजरेगा। बहरहाल कल तक जनप्रतिनिधि अपने क्षेत्र की रचना में स्कूल, कालेज, अस्पताल या कार्यालय ढो रहे थे, तो अब विस्थापन के आक्रोश का सार्थकता के साथ सामना करना होगा। मंडी-पठानकोट या धर्मशाला-शिमला फोरलेन की आवश्यकता को हमारी जरूरतों ने ही अनिवार्य बनाया है, अत: इसे कबूल करने का सामथ्र्य व समाधान तैयार करना होगा। विकास के लिए विस्थापन अगर अनिवार्य होने लगा है, तो पुनर्वास का राज्य स्तरीय नक्शा और मुआवजे की भरपेट सहमति भी पैदा करनी होगी। अब हर इंच के विकास का व्यय है, तो सामाजिक पुनर्वास से भी विकास का नया ढांचा विकसित करना है। अगर फोरलेन से विस्थापन या रोजगार की अनिश्चितता पैदा हो रही है, तो इसके एवज में पुनर्वास के विकल्पों में नई आर्थिकी का संचार करना है। जाहिर तौर पर हिमाचल को अपने आर्थिक हितों की दीवार हटाने के लिए ऐसी वन भूमि को पुन: विकास भूमि के लिए हासिल करना होगा, जो सात जिलों के निचले इलाकों में कम ऊंचाई पर स्थित है। जंगल से विकास भूमि हासिल करके ही विस्थापन का पुनर्वास और पुनर्वास से नई आर्थिकी विकसित होगी।

हिमाचल में सड़क, रेल व हवाई अड्डों के विस्तार-स्थापना के लिए केवल केंद्रीय योजनाएं ही नहीं, बल्कि पुनर्वास के लिए पर्वतीय राज्य की प्राथमिकता चाहिए। मौजूदा 66 फीसदी वन भूमि के तहत आते हिमाचल की भौगोलिक जरूरतें शेष 34 प्रतिशत जमीन से कैसे पूरी होंगी। वन भूमि का सर्वेक्षण करवाएं तो मालूम होगा कि कहीं ऐसी जमीन इनके तहत आ गई है, जिसकी उपयोगिता नागरिक सुविधाओं, विकास की जरूरतों तथा प्रगति के हिसाब से कहीं अधिक उपयोगी होगी। ऐसे में वन व साधारण-सार्वजनिक भूमि का अनुपात 50:50 करना चाहिए। आश्चर्य यह भी कि कई किसानों व बागबानों की निजी जमीन भी वास्तव में ढांग या खाई जैसी ही पाई जाती है, जबकि इसके मुकाबले जंगल की संपत्तियों में हिमाचल के आगे बढ़ती उम्मीदें कैद हैं। खुशी का विषय यह कि हिमाचल सरकार ने समिति गठित करके फोरलेन मुआवजे की फाइल पुन: खोलने की इच्छा प्रकट की है। सर्किल रेट से चार गुना मुआवजे की मांग का एक पक्ष हो सकता है, लेकिन हकीकत में विस्थापन का मूल्यांकन और उसके हिसाब से पुनर्वास व नए जीवन की शुरुआत का मसला तभी हल होगा, अगर प्रदेश भर में कम से कम छह नए निवेश केंद्र तथा इतने ही सेटेलाइट टाउन बनाकर विस्थापितों को आगे बढऩे का रास्ता दिखाया जाए।

3.दोहरी चुनौती

पहले ही कोरोना की मार से बुरी तरह प्रभावित केरल की मुसीबतें कम होने का नाम नहीं ले रही हैं। यहां तेजी से कोरोना संक्रमण हुआ है। प्रतिदिन संक्रमितों की संख्या पूरे देश के कुल आंकड़ों के आधे से अधिक है। दरअसल, पिछले माह त्योहारों के दौरान कोरोना पाबांदियों में छूट दिये जाने के बाद कोरोना संक्रमण के मामलों में अप्रत्याशित तेजी आई है। हालांकि, केरल सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के उन निर्देशों की अवहेलना की थी, जिसमें कोरोना कर्फ्यू में तीन दिन की छूट न देने को कहा गया था। कभी पूरे देश में कोरोना नियंत्रण की मिसाल बने केरल में फिर कोरोना संकट भयावह हो गया। दरअसल, केरल अब दोहरे संकट में घिरा है। केरल के कोझिकोड में खतरनाक निपाह वायरस के चपेट में आने से एक बारह वर्षीय लड़के की मौत हुई है। ऐसे में कोरोना संकट से मुक्त होने की जद्दोजहद में जुटे केरल की मुश्किलें बढ़ गई हैं। यह एक ऐसी आपदा की दस्तक है, जिसका दुनिया में कोई इलाज मौजूद नहीं है और जिसमें मृत्यु दर बेहद अधिक है। हालांकि, अच्छी बात यह है कि संकट की आहट पाते ही केंद्रीय विशेषज्ञ चिकित्सकों का दल केरल पहुंचकर समन्वय स्थापित कर रहा है। वहीं राज्य सरकार आपातकालीन उपायों के तहत मरीज के संपर्कों की तलाश, सचेत करने तथा पृथकवास में तेजी दिखा रही है। किशोर के संपर्क में आने वाले लोगों की पहचान की गई है, उनके घरों के आसपास सतर्कता बढ़ायी गई है। चिंता की बात यह है कि निपाह वायरस से संक्रमितों में मृत्युदर सत्तर फीसदी है और इसकी कोई वैक्सीन उपलब्ध नहीं है। ऐसे में बेहद सतर्कता के साथ इसके प्रसार को शुरुआती दौर पर ही रोका जाना चाहिए, ताकि यह फिर महामारी का रूप ग्रहण न कर सके।

बीते वर्षों में केरल सरकार इस वायरस को स्थानीय स्तर पर ही रोक पाने में सफल हुई थी। ऐसे में समय रहते इसके संक्रमण को रोकने के लिये सतर्कता ही कारगर उपचार है। वर्ष 2019 में राज्य ने समय रहते इस वायरस पर काबू पाया था। दरअसल, पहले रोगी के लक्षणों का निदान जरूरी होता है और फिर संक्रमण नियंत्रण के प्रोटोकॉल को लागू करना। निस्संदेह, पिछले अनुभव का लाभ केरल सरकार के लिये मददगार साबित होगा। वर्ष 2018 में राज्य में सामने आये निपाह वायरस के 18 मामलों में सत्रह लोगों की जान चली गई थी, जिसके बाद राज्य सरकार ने भविष्य की चुनौतियों के लिये बीते अनुभव के आधार पर रणनीति तैयार की। वैसे तो कोविड-19 की चुनौती से जूझ रहे केरल में मास्क पहनने, सुरक्षित शारीरिक दूरी का पालन करने के साथ ही संक्रामक महामारी के निवारक उपायों के प्रति व्यापक जागरूकता आई है। केरल से लगे राज्यों की सीमाओं को सील करने की जरूरत है, इस दिशा में तमिलनाडु में खासी सतर्कता बरती जा रही है। निस्संदेह अन्य राज्यों को भी सतर्क रहने की जरूरत है। साथ ही जिन दो लोगों में निपाह वायरस के संक्रमण की पुष्टि हुई है, उनकी व्यापक देख-रेख की जरूरत है। वैसे नेशनल सेंटर फॉर डिजीज कंट्रोल की टीम राज्य सरकार के स्वास्थ्य विभाग को तकनीकी सहयोग उपलब्ध करा रही है, फिर भी सतर्क रहने की जरूरत है। वहीं राज्य सरकार भी संक्रमण से मरे किशोर के संपर्क में आये लोगों पर व्यापक निगरानी रखे हुए है। जिन दो लोगों में संक्रमण के लक्षण दिखे हैं, वे किशोर के संपर्क में आये उन बीस लोगों में शामिल थे, जो जोखिम वाली स्थिति में माने जा रहे थे। दरअसल, मलेशिया में 1998 में निपाह नामक जगह में मिलने वाले वायरस को विश्व स्वास्थ्य संगठन तेजी से उभरते वायरस के रूप में देखता है। जिसके वाहक के रूप में चमगादड़ व सुअरों को माना जाता रहा है। बाद में इसके इंसान से इंसान में फैलने का मामला प्रकाश में आया। जिसमें लोग तेज बुखार के बाद सांस से जुड़ी गंभीर बीमारी तथा जानलेवा इंसेफ्लाइटिस के शिकार बने। जिसमें दिमाग को नुकसान होने की आशंका बनी रहती है।

4.शिक्षा पर कोविड की मार

कोविड-19 ने मानव समाज को कितना पीछे धकेला है, इसके सटीक आकलन में अभी वर्षों लगेंगे, क्योंकि महामारी पर निर्णायक नियंत्रण का कोई सिरा फिलहाल ठीक-ठीक दिख नहीं रहा और दुनिया का एक बड़ा व बेबस हिस्सा अब भी इसकी वैक्सीन के इंतजार में है। पर इसके जो तात्कालिक असर दिख रहे हैं, वही काफी दिल दुखाने और चिंतित करने वाले हैं। भारत के संदर्भ में मशहूर अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज, रीतिका खेड़ा और शोधार्थी विपुल पैकरा का एक ताजा सर्वेक्षण बताता है कि लंबे अरसे तक स्कूलों के बंद रहने की सबसे बड़ी कीमत ग्रामीण इलाकों के गरीब बच्चों ने चुकाई है। कक्षा एक से आठवीं तक के बच्चों के बीच किए गए इस सर्वे के मुताबिक, गांवों में रहने वाले 37 प्रतिशत बच्चों ने इस अवधि में बिल्कुल पढ़ाई नहीं की, जबकि सिर्फ आठ फीसदी बच्चे नियमित रूप से ऑनलाइन पढ़ाई कर सके। शहरी क्षेत्र के आंकडे़ भी कोई बहुत राहत नहीं देते। यहां भी सिर्फ 24 प्रतिशत बच्चे नियमित रूप से ऑनलाइन शिक्षा ग्रहण कर सके।

ये आंकडे़ चौंकाने वाले नहीं हैं, अलबत्ता तकलीफदेह जरूर हैं। करीब डेढ़ साल तक देश भर में स्कूल बंद रहे। इस दौरान ऑनलाइन पढ़ाई की वैकल्पिक व्यवस्था की गई, मगर इसकी जटिलताओं व सीमाओं को देखते हुए और भी बहुत कुछ करने की जरूरत थी। सरकार और शिक्षा तंत्र, दोनों इस बात से बखूबी वाकिफ थे कि जो बच्चे दोपहर के भोजन के आकर्षण में स्कूल आते हैं या जिनके मां-बाप बमुश्किल उनकी फीस जोड़ पाते हैं, उनके पास स्मार्टफोन, इंटरनेट, बिजली जैसी सुविधाएं कहां होंगी! ऐसे में, उनके लिए इनोवेटिव रास्ते निकालने के वास्ते स्थानीय शिक्षा-तंत्र को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए था। खासकर पूर्ण लॉकडाउन के फौरन बाद। लेकिन सवाल सरोकार का है, और दुर्योग से शिक्षा इसमें बहुत ऊपर कभी नहीं रही। इस मद में बजटीय आवंटन और स्कूलों-शिक्षकों की कमी ही बहुत कुछ कह देती है। इसमें कोई संदेह नहीं कि सरकार की पहली प्राथमिकता संक्रमण रोकने की थी, और यह होनी भी चाहिए थी। पर जिस तरह उसने लोगों को भूख से मरने नहीं दिया, चुनावों में शिक्षकों की सेवाएं लीं, वह इस स्थिति से भी बचने की राह तलाश सकती थी। बहरहाल, चुनौती बड़ी है, क्योंकि बच्चों की एक विशाल संख्या सीखने में काफी पिछड़ गई है। सर्वे के निष्कर्षों में कहा गया है, कक्षा पांच के काफी बच्चों को दूसरे दरजे का पाठ पढ़ने में कठिनाई महसूस होने लगी है। अब जब तमाम सावधानियों के साथ स्कूल खुल रहे हैं, तब हमारे पूरे शिक्षा तंत्र की काबिलियत इसी से आंकी जाएगी कि वह इन बच्चों के नुकसान को किस तरह से न्यूनतम कर पाता है। सरकारों को शिक्षकों से अब पढ़ाई-लिखाई से इतर कोई भी कार्य लेने से परहेज बरतना चाहिए। उन्हें यह दायित्व सौंपना चाहिए कि इस अवधि में जिन बच्चों ने स्कूल से अपना नाता तोड़ लिया है, उन्हें वापस जोड़ा जाए। आज देश में बेरोजगारी का जो आलम है, उसे देखते हुए अल्प-शिक्षित पीढ़ियां भविष्य में बड़ा बोझ साबित होंगी। प्रधानमंत्री ने कल ही ‘शिक्षक पर्व’ का उद्घाटन करते हुए कहा कि शिक्षा न सिर्फ समावेशी होनी चाहिए, बल्कि समान होनी चाहिए। पर ताजा सर्वे इस लक्ष्य के विपरीत हालात दिखा रहा है, जहां गरीब-अमीर, गांव-शहर की शिक्षा में काफी असमानताएं हैं।

 

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