इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है।
1.किसान की शब्दावली नहीं
प्रधानमंत्री मोदी और उप्र के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ‘बाहरी कैसे हैं? वे दशकों से भारतीय राजनीति और सार्वजनिक जीवन में हैं। संवैधानिक पदों पर रहे हैं। यदि ‘बाहरी हैं, तो वे प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री के पदों पर आसीन कैसे हो सकते थे? उनका निर्वाचन ही अवैध था! चुनाव आयोग ने ‘बाहरी को चुनाव लडऩे और मताधिकार के योग्य क्यों माना? लोकतंत्र की बुनियादी और निर्णायक इकाई-जनता-ने दोनों नेताओं को बार-बार जनादेश क्यों दिया? दरअसल यह किसी भी किसान आंदोलन की शब्दावली नहीं है। किसान आंदोलन के मंच से टिप्पणी की गई-ये दंगे कराने वाले नेता हैं! देश की संस्थाएं बेच रहे हैं। इन्हें बेचने की अनुमति किसने दी? यह शब्दावली भी किसान की नहीं, बल्कि घोर राजनीतिक और चुनावी है। किसी अदालत का कोई गंभीर फैसला इन दोनों नेताओं के खिलाफ उपलब्ध है क्या? खासतौर पर दंगों को लेकर…! विपक्ष की परंपरागत जुबां किसान न बोलें। आंदोलन के सूत्रधार संयुक्त किसान मोर्चा ने अपने वक्तव्य में यह भी कहा है कि उप्र और उत्तराखंड मिशन की शुरुआत हो चुकी है। भाजपा को वोट नहीं देना है। वोट की चोट मारना बेहद जरूरी है। क्या अब किसान यही राजनीतिक प्रचार करेंगे? क्या इसके जरिए किसानों के मुद्दों का समाधान निकलेगा? क्या मोदी और योगी तथा उनकी भाजपा को किसान-विरोधी करार दिया जाता रहेगा? ये कथन और सवाल किस ओर संकेत करते हैं? साफ है कि किसान का मुखौटा पहन कर, कुछ पराजित राजनीतिक चेहरे, अपना मकसद पूरा करना चाहते हैं! वे भी किसान होंगे, लेकिन उनकी तकलीफें और पीड़ा वह नहीं है, जो 86 फीसदी किसानों की हैं।
उनके पास 2 हेक्टेयर से भी कम कृषि-योग्य भूमि है। वे गरीब और कजऱ्दार हैं। हमारा दावा है कि उन्होंने तीनों विवादास्पद कानून पढ़े भी नहीं होंगे। उस जमात के 4 लाख से अधिक किसान आत्महत्या कर चुके हैं और यह सिलसिला अभी जारी है। उनकी औसत आमदनी 6-8 हजार प्रति माह है-न्यूनतम से भी नीचे! किसान आंदोलन ने एक और महापंचायत का आयोजन मुजफ्फरनगर, उप्र में किया। ऐसे कई आयोजन पहले भी किए जा चुके हैं। यह किसानों और आंदोलनकारियों का संवैधानिक अधिकार है, लेकिन चिंतित सरोकार किसानों पर ही केंद्रित होने चाहिए। मोदी और योगी को गाली देकर किसान का हासिल क्या होगा? यदि राजनीति करनी है, तो मु_ी भर मुखौटाधारी किसान भी चुनाव मैदान में कूद पड़ें। मोदी-योगी की पार्टी को पराजित कर दें। देश कुछ नहीं कहेगा, बल्कि आपके राजनीतिक विश्लेषण किए जाएंगे। आप भी संवैधानिक पद हासिल कर सकेंगे, लेकिन आंदोलन को ‘खिचड़ीÓ मत बनाएं। वैसे भी आंदोलन देश के 70 करोड़ से ज्यादा किसानों और उनके परिजनों का होना चाहिए। हकीकत यह नहीं है, क्योंकि किसानों का एक वर्ग खुले बाज़ार में मुनाफा कमा रहा है। वह विवादास्पद कानूनों के खिलाफ भी नहीं है। बेशक बीते 9 माह से जारी किसान आंदोलन का अब समाधान निकलना ही चाहिए।
भारत सरकार के साथ बातचीत शुरू होनी चाहिए, लेकिन कथित किसान नेता अपनी जिद तो छोड़ें। स्वामीनाथन आयोग का बहुत शोर मचाया जाता रहा है, लेकिन उसकी रपट में क्या-क्या सिफारिशें की गई थीं, सरकार या विशेषज्ञ उन्हें भी सार्वजनिक करें, क्योंकि मौजूदा आंदोलन उसे लेकर भी गुमराह कर रहा है। रपट में साफ उल्लेख है कि सभी फसलों पर न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) नहीं दिया जाना चाहिए। चर्चा इस मुद्दे पर भी होनी चाहिए कि ज़मीन छीन लेने का कोई भी प्रावधान कानूनों में कहां किया गया है? किसान आंदोलनकारी यह हव्वा क्यों खड़ा करते रहे हैं? दरअसल हम भी इस पक्ष में हैं कि एमएसपी को कानूनी दर्जा जरूर दिया जाना चाहिए, ताकि खुले बाज़ार में किसान की फसल एमएसपी से ज्यादा भाव पर ही बिके। किसानों को लाभकारी मूल्य मिले, इसके मद्देनजर आज तक जितनी भी समितियां बनाई गई हैं, उन्होंने खुले बाज़ार की ही सिफारिशें की हैं। दिवंगत प्रधानमंत्री चौ. चरण सिंह और महेंद्र सिंह टिकैत किसानों के सर्वोच्च नेता थे। उनके लेखन और कथनों को खंगाल लें, तो वे भी किसानों के लिए खुले बाज़ार के पैरोकार थे। नए दौर में महज एक ही जिद पर आंदोलन चलाया जा रहा है कि तीनों कानून रद्द किए जाएं। क्या इस तरह किसी समझौते पर पहुंचा जा सकता है?
2.सियासी सलीब पर
पूर्व विधायक एवं सीपीएस जगजीवन पाल के साथ हुई धप्पड़बाजी से जो कोहराम मचा है, उसे खंगालते हुए हिमाचल के कान कितना सुनेंगे या यूं ही इस घटनाक्रम से जनता एक तमाशबीन बनी रहेगी। ताज्जुब यह कि अब चुनाव की सूचना देते व्यवहार में राजनीति की गलियां खूंखार नजर आती हैं और आपसी वैमनस्य की पतवार से राज्य की भूमिका का भंवर निरंतर खतरनाक होने लगा है। कुछ इसी तरह ठियोग में बागबानी मंत्री के खिलाफ गो-बैक के नारे या लाहुल-स्पीति में सत्ता के प्रदर्शन के बीच मंत्री के खिलाफ दीवारें पोतने की कोशिश को क्या कहेंगे। समाज के लिए यह सत्ता का अंतिम वर्ष हो सकता है, लेकिन राज्य के लिए ऐसे उदाहरणों से चारित्रिक पतन की लज्जाजनक परिस्थिति खड़ी हो रही है। सत्ता को बटोरना और सत्ता की महत्त्वाकांक्षा में अपने पक्ष को सामने रखना, कमोबेश ऐसा मुकाबला है जिसकी कोई सीमा आंकी नहीं जा सकती। राजनीतिक उल्लंघन की एक ऐसी परिपाटी हिमाचल में भी घर करने लगी है, जिसके प्रारूप में खुन्नस है।
सत्ता अब एक ऐसा पीढ़ीवाद है जो पांच साल के सारे लाभों में व्यवस्था के मुताबिक हाथी दौड़ाता है और इस तरह शागिर्दों की टोलियों में ‘नमक हलालीÓ की नुमाइश होती है। देखना होगा कि जगजीवन पाल को थप्पड़ रसीद करने वाला शख्स नमक हलाली कर रहा था या विपक्षी आक्रोश की वजह को खारिज करने की बस यही वजह बची थी। हैरानी यह कि न हमारे आसपास किसी सार्थक बहस का विषय बचा है और न ही राजनीति के पास संघर्ष की कोई गाथा आगे बढ़ रही है। सत्ता से विपक्ष का टकराव कोई अनहोनी घटना नहीं, लेकिन आज की परिस्थिति में सबसे घातक परिदृश्य राजनीतिक सोच, समझ और आपसी विद्वेष के कारण ही पैदा हो रहा है। असल में जब जनता के अखाड़ों में प्रश्र कम पड़ जाएं तो ऐसी ही कुश्तियां होती हैं। दरअसल लोकतंत्र के मौजूदा दौर में मतदाता भी मसखरा हो गया है। आजादी के 74 वर्षों में नागरिक और मतदाता की अपेक्षाओं और कत्र्तव्यों में भारी अंतर आ गया है। नेताओं के लिए नागरिक शब्द अब खिसियानी बिल्ली जैसा है, जबकि वही शख्स बतौर मतदाता सारी जमीन खोद देता है। मतदाता के उद्बोधन में राजनीति सारी सर्कस करती है और यही सब हमारी आंखों के सामने हो रहा है। जहां तक हिमाचल में विकसित हो रही राजनीतिक संस्कृति का प्रश्र है, चारों ओर सत्ता के केंद्र बिंदु विकसित किए जा रह ेहैं। व्यपस्था भी एक तरह से सत्ता की प्राथमिकताओं को ढोने के सबब में ऐसी चाटुकार पद्धति है कि आम नागरिक साल दर साल हाथ जोड़े खड़ा यह अंतर नहीं देखता कि कौन पक्ष अच्छा है।
उसके लिए लोकतंत्र सिर्फ हुक्मरानों की पैदाइश में निजी स्वार्थ की परवरिश है। इसलिए आपसी द्वंद्व के बीच बंटती सत्ता के नजारे हर बार चेहरा बदल कर आते हैं, लेकिन रूह नहीं बदलती। सत्ता का श्याम, विपक्ष का श्वेत पक्ष नहीं हो सकता, लेकिन चुनावी अदलाबदली में मतदाता जरूर अंधकार से ही गुजर रहा है। उसके पास न समीक्षा और न ही टिप्पणी करने का वक्त है, क्योंकि कल किसी और नेता की गर्दन पर जब थप्पड़ की आवाज होगी तो भी उसे व्यवस्था के कान बहरे ही महसूस होंगे। उम्मीदों की झाड़ फूंक में वह हर बार मत बदल सकता है या किसी नए चुनावी चिन्ह और अपनी बेहतरी के लिए सत्ता बदल सकता है, लेकिन हकीकत यह है कि सत्ता के बंटवारे के लाभार्थी अब चौक-चौराहों से भी जनता के मूल प्रश्र चुरा कर घुड़कियां दे रहे हैं। जनता को बतौर नागरिक इन्हीं नेताओं का इस्तकबाल कभी किसी मंत्री की वेशभूषा में करना पड़ेगा या कभी इन्हें मंचों पर यह कहते सुनना पड़ेगा मानो वह कोई सिर धड़ की बाजी लगाकर खैरात बांट रहे हैं। सर्वमान्य न होते हुए या योग्यता की अति निचली पायदान से भी बेदखल होते हुए कल फिर किसी को चुना जाएगा या सत्ता के आगोश में अहंकार पालते हुए वह संघार करेगा, लेकिन तब तक मतदाता फिर से सामान्य नागरिक बन कर सिर्फ यह सोचेगा, ‘यह क्या हो रहा है।
3.खास खिलाड़ियों की चमक
भारतीय खेलों के लिए यह एक तरह से नए युग का आगाज है। ओलंपिक में बेहतर प्रदर्शन के बाद अब पैरालंपिक में भी भारत ने ऐतिहासिक प्रदर्शन कर दुनिया को चौंका दिया है। खुद भारत में लोगों को इतने पदकों की उम्मीद न थी। गली-गली में उचित ही चर्चा हो रही है कि आज तक हुए पैरालंपिक खेलों में देश को कुल 12 पदक नसीब हुए थे, लेकिन इस बार टोक्यो में आयोजित पैरालंपिक में देश 19 पदक लाने में कामयाब रहा है। इसके पहले के पैरालंपिक के प्रति हर तरह से उदासीनता रहती थी, लेकिन इस बार इन खेलों के प्रति सरकार के जिन अधिकारियों ने उत्साह दिखाया है, वे वाकई बधाई के पात्र हैं। भारत से अपेक्षाकृत एक बडे़ दल को पैरालंपिक में भेजकर भरोसा जताया गया। नौ प्रकार के खेलों में भाग लेने के लिए हमारे 54 खिलाड़ी गए और 19 पदकों के साथ लौटे हैं, तो बेशक यह आनुपातिक रूप से भी बड़ी सफलता है। करीब दस खिलाड़ी तो पदक के करीब जाकर रह गए हैं, अगर उनका मानसिक स्तर मजबूत होता, तो भारत के आधे खिलाड़ी पदक जीतकर लौटने में कामयाब होते। पैरालंपिक की जीत इसलिए भी ज्यादा मायने रखती है कि हमारे देश में अनेक लोग आज भी दिव्यांगों को महत्व नहीं देते हैं। आज ऐसे लोग अपनी पिछड़ी सोच पर पुनर्विचार कर रहे होंगे।
खिलाड़ियों ने यह साबित कर दिया है कि अगर उन पर भरोसा किया जाए, तो भविष्य में और भी पदक हासिल होंगे और भारत अपने आज के प्रदर्शन से कई गुना बेहतर प्रदर्शन कर सकता है। भारत के पास पांच स्वर्ण, आठ रजत और छह कांस्य पदक हैं और वह दुनिया में 24वें स्थान पर है। पिछली बार भारत को केवल चार पदक मिले थे। इन खास खिलाड़ियों ने कुछ ऐसी कामयाबियां अपने नाम की हैं कि उन्हें हमेशा याद किया जाएगा। गौतमबुद्ध नगर के डीएम सुहास यतिराज की कामयाबी तो भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों के लिए भी खास है। यतिराज पहले आईएएस हैं, जिन्होंने पैरालंपिक में न केवल बैडमिंटन में भाग लिया, बल्कि रजत पदक भी जीता है। आज वह किसी नायक से कम नहीं हैं। उनकी यह कामयाबी युवाओं के लिए बहुत प्रेरणास्पद सिद्ध होगी। पहली बार सबके सामने यह स्पष्ट हो गया है कि इन खिलाड़ियों को कतई कम नहीं आंकना चाहिए। टेबल टेनिस में रजत जीतकर भाविनाबेन पटेल ने भारत के लिए शानदार शुरुआत की थी। 10 मीटर एयर राइफल शूटिंग स्टैंडिंग इवेंट में शूटर अवनि लेखरा ने स्वर्ण जीता। उन्होंने 50 मीटर राइफल थ्री पोजीशन में भी कांस्य पदक जीता। इसके अलावा, सुमित अंतिल ने कई विश्व रिकॉर्ड तोड़ते हुए, मनीष नरवाल और प्रमोद भगत ने भी शीर्ष स्थान हासिल किया। अंतिम दिन, कृष्णा नागर ने बैडमिंटन में स्वर्ण जीता। निषाद कुमार, देवेंद्र झाझरिया, सुंदर सिंह गुर्जर भी कामयाब रहे। खास यह कि देवेंद्र ने अपने पैरालंपिक करियर के दो स्वर्णों में एक रजत पदक जोड़ लिया है। योगेश कथुनिया, सिंहराज अधाना, मरियप्पन थंगावेलु, शरद कुमार इत्यादि अनेक नाम हैं, जो भारत को पैरालंपिक में आगे की राह दिखाएंगे। वास्तव में, अब लगने लगा है कि खेलों के प्रति हमारा व्यवहार बदल गया है। सरकारों को इन विशेष खिलाड़ियों के जीवन को हर प्रकार से सुरक्षित, संरक्षित करना चाहिए। कोई आश्चर्य नहीं, हरियाणा सरकार ने शुरुआत कर दी है।
4.शीघ्र समाधान जरूरी
केंद्र सरकार के तीन नये कृषि कानूनों के खिलाफ पिछले नौ माह से आंदोलन कर रहे संयुक्त किसान मोर्चा ने अब 27 सितंबर को ‘भारत बंद’ का ऐलान किया है। उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर में महापंचायत में यह भी फैसला लिया गया कि अब देशभर में धरने-प्रदर्शनों का दौर शुरू किया जाएगा। आंदोलनरत किसानों ने अपने मंच पर बेशक किसी भी राजनीतिक दल के नेता को स्थान नहीं दिया, लेकिन इस आंदोलन के समर्थन में कांग्रेस, सपा, बसपा और रालोद सहित तमाम विपक्षी पार्टियां खुलकर सामने आयी हैं। किसान नेताओं ने जहां आंदोलन को व्यापक जनसमर्थन मिलने का दावा किया है, वहीं सत्ताधारी दल ने इसे सियासी जमावड़ा बताते हुए कहा है कि आंदोलनकारी किसान नहीं, राजनीतिक दलों के कार्यकर्ता हैं। हालांकि भाजपा सांसद वरुण गांधी ने आंदोलनरत किसानों को ‘अपना ही भाई-बंधु’ बताते हुए एक ट्वीट के जरिये सरकार से अपील की है कि दोबारा बातचीत शुरू की जानी चाहिए ताकि सर्वमान्य हल तक पहुंचा जा सके। असल में तीन कृषि कानूनों को वापस लेने की मांग को लेकर पिछले नौ महीने से दिल्ली बॉर्डर पर किसान डेरा डाले हुए हैं। किसान उन कानूनों को रद्द करने की मांग कर रहे हैं, जिनसे उन्हें डर है कि ये कानून न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) व्यवस्था को खत्म कर देंगे तथा उन्हें बड़े कारोबारी समूहों की दया पर छोड़ देंगे। सरकार इन कानूनों को प्रमुख कृषि सुधार और किसानों के हित में बता रही है। इन तीन कृषि कानूनों में पहला है, ‘कृषक उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सरलीकरण)।’ इसके तहत सरकार का कहना है कि वह उपज बेचने के विकल्पों को बढ़ाना चाहती है। किसान इस कानून के जरिये मंडियों के बाहर भी अपनी उपज उचित दामों पर बेच पाएंगे। कानून के विरोध में कहा जा रहा है कि बड़े कॉरपोरेट खरीदारों को खुली छूट दी गयी है। यही छूट मंडियों की प्रासंगिकता को समाप्त कर देगी। दूसरा कानून है, ‘कृषि (सशक्तीकरण और संरक्षण) कीमत आश्वासन और कृषि सेवा करार विधेयक।’ इसको लेकर सरकार का दावा है कि वह किसानों और निजी कंपनियों के बीच समझौता खेती यानी ‘कान्ट्रेक्ट फार्मिंग’ का रास्ता खोल रही है। आंदोलन के पक्ष में बात करने वालों का दावा है कि इससे तो किसान अपनी ही जमीन पर मजदूर बनकर रह जाएगा।
तीसरा कानून है, ‘आवश्यक वस्तु संशोधन विधेयक।’ इसके तहत कृषि उपज जुटाने की सीमा नहीं रहेगी। सरकार का कहना है कि किसानों को ‘ऑन द स्पॉट’ सारी राशि मिल जाएगी और उपज भी बिक जाएगी। इसके विरोध में तर्क दिया जा रहा है कि इससे जमाखोरी और कालाबाजारी बढ़ेगी। इन कानूनों के विरोध के अलावा किसान न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) जारी रखे जाने की कानूनी गारंटी भी चाहते हैं। हालांकि सरकार लिखित गारंटी देने के पक्ष में है। नये कृषि कानूनों को लेकर सरकार और किसान संगठनों के बीच 10 दौर से अधिक की बातचीत हो चुकी है, लेकिन गतिरोध खत्म नहीं हुआ। केंद्र सरकार ने प्रदर्शनकारी किसान संगठनों से कहा है कि वह कानूनों में संशोधन के साथ ही अन्य मुद्दों पर भी बातचीत के लिए तैयार है, लेकिन आंदोलनरत किसानों की पहली शर्त कृषि कानूनों की वापसी है। उनका कहना है कि किसानों के अनेक मुद्दे हैं, सभी पर बातचीत होगी, लेकिन सबसे पहले सरकार तीन कानूनों को रद्द करे। दोनों ओर से जारी अड़ियल रुख के कारण पहले भी बातचीत बेनतीजा रही और स्थिति कमोबेश अभी भी वैसी ही है। दिल्ली की सीमाएं बंद हैं और कोरोना काल में अलग-अलग मौसम चक्र में किसान धरने पर बैठे हैं। इसका लंबा खिंचना दुखदायी है। इस वक्त बेहद जरूरी है कि दोनों ओर से थोड़ा-थोड़ा लचीला रुख अपनाया जाए और बातचीत के जरिये समाधान ढूंढ़ने की ओर बढ़ा जाए।