इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है।
1.फर्जी खबरें खतरनाक
देश की शीर्ष अदालत ने सोशल मीडिया मंचों और वेब पोर्टल्स पर फर्जी खबरों को लेकर गंभीर चिंता जतायी है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि मीडिया के एक वर्ग में दिखायी जाने वाली खबरों में सांप्रदायिकता का रंग होने से देश की छवि खराब हो रही है। प्रधान न्यायाधीश एनवी रमण, जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस एएस बोपन्ना की पीठ ने पिछले दिनों जमीयत उलेमा-ए-हिंद एवं संबंधित अन्य याचिकाओं पर सुनवाई के दौरान कहा कि यह बहुत बड़ी समस्या है कि इस देश में हर चीज मीडिया के एक वर्ग द्वारा सांप्रदायिकता के पहलू से दिखायी जाती है। सुप्रीम कोर्ट की ये टिप्पणियां विचारणीय हैं और इस दिशा में प्रभावी कदम उठाए जाने की जरूरत है। असल में, सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर अफवाहों के कई ऐसे दौर चलते हैं, जिनके कारण समाज में वैमनस्य तो फैलता ही है, आपरधिक वारदातें तक हो जाती हैं। अफवाहों या झूठी खबरों को लेकर आज जिस ‘न्यू मीडिया’ की बात की जा रही है, उसका दायरा सिर्फ यूट्यूब, ट्विटर या फेसबुक तक ही सीमित नहीं है। ऐसा मुख्यधारा के मीडिया में भी हो रहा है, खासतौर से कुछ टीवी चैनलों पर। ये चैनल समाचारों को सांप्रदायिक रंग देते हैं। हालांकि केबल टीवी नेटवर्क (विनियमन) अधिनियम के तहत ऐसे मामलों के लिए वैधानिक तंत्र है, लेकिन उन चैनलों पर नकेल नहीं कसी जा रही है जो दिन-ब-दिन जहर उगलते हैं।
पिछले साल की शुरुआत में कोविड-19 के प्रकोप ने एक ‘सूचना महामारी (इन्फोडेमिक)’ को जन्म दिया। नतीजतन ऑनलाइन प्लेटफॉर्म पर गलत सूचनाओं की बाढ़-सी आ गयी। मार्च, 2020 में दिल्ली में तबलीगी जमात के कोरोना वायरस ‘सुपरस्प्रेडर’ के रूप में सामने आने के बाद पूरे मुस्लिम समुदाय ने खुद को बदनाम-सा पाया। इसी मुद्दे पर जमीयत उलेमा-ए-हिंद ने अपनी याचिका में निजामुद्दीन स्थित मरकज में धार्मिक सभा से संबंधित ‘फर्जी खबरें’ फैलाने वालों पर कड़ी कार्रवाई करने का केंद्र को निर्देश देने का अनुरोध किया। केंद्र ने बार-बार तर्क दिया है कि वह ऐसे मामलों में रोक का आदेश जारी नहीं कर सकता। केंद्र का तर्क है, ‘यह कदम नागरिकों को जानने की स्वतंत्रता और एक सूचित समाज सुनिश्चित करने के लिए पत्रकारों के अधिकार को प्रभावी ढंग से नष्ट कर देगा।’ सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर नियमित सलाह और चेतावनी का प्रभावी निगरानी तंत्र बनाने की जरूरत है ताकि समाज में विष वमन नहीं हो। असल में, विभाजनकारी एजेंडा के साथ प्रसारित या प्रचारित समाचार लोकतांत्रिक व्यवस्था को छिन्न-भिन्न करते हैं और इससे जुड़े लोग कानून और व्यवस्था के लिए खतरा बनते हैं। विभाजनकारी और समाज में वैमनस्यता फैलाने वाली सामग्री की पहचान की जानी चाहिए और उसे जबरन हटाया जाना चाहिए। भारत जैसे लोकतांत्रिक और विविधता वाले देश में विभाजनकारी एजेंडा के लिए कोई स्थान होना ही नहीं चाहिए।
2.अंतरिक्ष में स्नान
वैज्ञानिक अब अंतरिक्ष केंद्र में महीनों तक रहने लगे हैं, तो जाहिर है, कभी उन्हें नहाने का भी मन करेगा, लेकिन क्या वे नहा सकते हैं? इस प्रश्न का जवाब शायद ‘हां’ में है। नासा की अंतरिक्ष वैज्ञानिक मेगन मैकआर्थर ने बहुत शौक से अपने बालों को शैंपू करके दुनिया को बताया ही नहीं, बल्कि वीडियो बनाकर दिखा दिया है। अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष केंद्र पृथ्वी की कक्षा में घूमता हुआ एक आधुनिक घर जैसा है, जहां गुरुत्वाकर्षण की स्थिति ऐसी है कि लगभग हर चीज लटकाई जा सकती है। अंतरिक्ष यान जहां खुद लटका हुआ घूम रहा है, वहीं उसके अंदर की तमाम चीजें भी लगभग हवा में हैं। यहां तक कि पानी भी यहां हवा में अटक जाता है। तो अंतरिक्ष में नहाने या शैंपू करने के लिए सबसे पहले पानी को घेरकर बचाना जरूरी है। पानी को ऐसे बचाना है, मानो अगर वह खत्म हो गया, तो जीवन संकट में आ जाएगा। अंतरिक्ष में अभी जो स्थिति है, उसमें वैज्ञानिक जो जल खर्च या उत्सर्जित करते हैं, उसे बचाते भी हैं। गंदे हुए पानी को भी साफ करके पीने लायक बनाते रहते हैं, ताकि उनके हिस्से के 70 लीटर पानी का थोड़ा हिस्सा भी बर्बाद न जाए। जहां बूंद-बूंद की चिंता है, वहां भी नहाना मुमकिन है।
रही बात अंतरिक्ष यात्री मेगन मैकआर्थर के बालों की सफाई की, तो उन्होंने ऐसा नहीं है कि पहले कुछ मग पानी से बालों को भिगोया, फिर शैंपू लगाया और उसके बाद फिर कुछ मग पानी से बालों से झाग को हटाया। मेगन ने सबसे पहले दो या तीन तरफ से कागज या कपडे़ की आड़ तैयार की और उसके बाद एक तौलिए में पानी लिया, मतलब तौलिए को भिगोया और अपने बालों को गीला किया। फिर कुछ बूंद शैंपू बालों में ठीक से लगाया और उसके बाद तौलिए के सूखे हिस्से से बालों को पोछ लिया। फिर भी कुछ बूंदें इधर-उधर चली गईं, जिनको उन्होंने तौलिए में समेट लिया, ताकि उससे पानी निचोड़कर उसे फिर से पीने लायक बनाया जा सके। दिमागी एकाग्रता के लिए बालों को अगर साफ रखना महत्वपूर्ण है, तो अंतरिक्ष में अपने हिस्से के पानी को बचाना उससे भी अधिक महत्वपूर्ण है। न्यूनतम गुरुत्वाकर्षण या माइक्रोग्रैविटी में अपने बालों को साफ करके दुनिया को दिखाने वाली वह पहली महिला बन गई हैं। यह बहुत रोचक वाकया है, जिससे दूसरे अंतरिक्ष यात्रियों को भी थोड़ी राहत या खुशी का एहसास होगा।
धरती पर रहने वालों या पानी बर्बाद करने वालों को अंतरिक्ष की स्थितियों से सीखना चाहिए। बहुत कम पानी में भी जीवन संभव है। क्या धरती पर भी हर आदमी अपने हिस्से के पानी को बचा या पुनर्शोधित कर सकता है? कम से कम जिन इलाकों में पानी बहुत कम है, वहां ऐसी ही व्यवस्था एक सामयिक विचार तो है ही। दूसरी बात, अंतरिक्ष यात्रियों द्वारा किए जाने वाले ऐसे प्रयोग दरअसल उन्हें लंबे अभियानों के लिए तैयार करने की प्रक्रिया का हिस्सा हैं। जब आप चंद्रमा या मंगल पर जाएंगे, तब ऐसे ही जाना पड़ेगा। बूंद-बूंद संजोते हुए। 50 वर्षीया अमेरिकी अंतरिक्ष यात्री मेगन मैकआर्थर बीते अप्रैल महीने में दूसरी बार अंतरिक्ष में गई हैं। चार महीने से भी ज्यादा समय से वह अंतरिक्ष स्टेशन पर हैं, संभव है, उन्होंने पहले भी बालों को शैंपू किया हो, लेकिन इस बार उन्होंने जो शैंपू किया है, उससे अंतरिक्ष विज्ञान और विज्ञान के विद्यार्थियों को बड़ा बल मिलेगा।
3.भूख, गरीबी में अफगान
अफगानिस्तान पर तालिबान के कब्जे को तीन सप्ताह बीत चुके हैं, लेकिन अभी तक सर्वसम्मत हुकूमत नहीं बन पाई है। तालिबान में कई आतंकी गुट हैं। वर्चस्व की उनकी अपनी-अपनी भूख है, लेकिन अफगानिस्तान में गरीबी और भुखमरी के कारण हालात नाज़ुक हैं। तालिबान के खिलाफ कई तरह के विद्रोह फूट चुके हैं। पंजशीर घाटी में तो जंग जारी है। इधर काबुल, हेरात, कंधार आदि प्रांतों में औरतें सड़कों पर आंदोलन कर रही हैं। उन्हें तालिबान हुकूमत कबूल नहीं है। औरतों को मार-पीट कर लहूलुहान किया जा रहा है। आंसू गैस के गोले भी छोड़े गए हैं। जबरन निकाह कराए जा रहे हैं। दरिंदगी का सबसे भयावह उदाहरण खातिरा हाशमी का है, जिसकी दोनों आंखें चाकू से गोद-गोद कर बाहर निकाल दी गई हैं। वह पुलिस में काम करती थी, जो तालिबान को कबूल नहीं था। अब खातिरा दृष्टिहीन और बेसहारा है। किसी तरह भारत में आ गई है। सवाल है कि अब किस तरह का अफगानिस्तान होगा? कोरोना-काल से पहले अफगानिस्तान में 54.2 फीसदी लोग गरीबी-रेखा से नीचे थे, लेकिन अब करीब 72 फीसदी आबादी गरीबी-रेखा के नीचे जीने को विवश है। देश में औसतन एक-डेढ़ माह के खाद्यान्न शेष हैं और 40 फीसदी फसल सूख कर बर्बाद हो चुकी है। निश्चित तौर पर 1.4 करोड़ लोगों के सामने खाने का भीषण संकट है। एक और सर्वेक्षण सामने आया है कि अफगानिस्तान में औसतन 3 में से 1 व्यक्ति भूखा है और उसकी आजीविका भी छिन चुकी है। संयुक्त राष्ट्र ने 13 सितंबर को मंत्री-स्तरीय बैठक बुलाई है।
संगठन के प्रमुख एंतोनियो गुतारेस ने अफगानिस्तान में बढ़ रहे मानवीय संकट से निपटने का आह्वान किया हैै। संयुक्त राष्ट्र ने 2021 के लिए 1.3 अरब डॉलर की मदद की अपील की है, ताकि 1.80 करोड़ से अधिक लोगों तक कमोबेश खाद्य मदद पहुंचाई जा सके। संयुक्त अरब अमीरात ने खाद्यान्न और अन्य वस्तुओं से भरा एक विमान काबुल भेजा है। अलबत्ता अमरीका, ब्रिटेन, जर्मनी समेत यूरोपीय संघ और नाटो के देशों ने फिलहाल किसी मदद का ऐलान नहीं किया है। आर्थिक मदद पर तो उनकी पाबंदियां पहले से ही हैं। अफगानिस्तान की अर्थव्यवस्था चलाने और तमाम जरूरी संसाधन जुटाने के मद्देनजर देश को 6 अरब डॉलर की राशि चाहिए, जबकि घरेलू स्तर पर 1.5 अरब डॉलर ही जुटाना संभव है। शेष पूंजी कहां से आएगी और देश को चलाना कैसे संभव होगा? अफगानिस्तान के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का करीब 41 फीसदी हिस्सा विदेशी फंड पर ही आश्रित रहा है। अफगानिस्तान पर चौतरफा प्रतिबंध लगे हैं। अमरीका ने अफगान सेंट्रल बैंक को सीज कर रखा है, जिसमें 700 करोड़ डॉलर रिजर्व थे। अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष ने करीब 46 करोड़ डॉलर की आकस्मिक मदद पर रोक लगा रखी है। वह मदद किसी भी देश की सरकार को ही दी जाती है, लेकिन अफगानिस्तान में फिलहाल कोई सरकार और प्रशासन नहीं है। बीते 8 महीने के अंतराल में 5.70 लाख अफगान लोग विस्थापित हो चुके हैं। करीब 20 लाख बच्चे कुपोषण का शिकार हैं।
संयुक्त राष्ट्र की रपट है कि कुल 5 लाख से ज्यादा लोग देश छोड़ कर भाग सकते हैं। उन्हें ‘शरणार्थी का दर्जा मिलेगा, यह भी एक पेचीदा और गंभीर सवाल है। इसी माहौल में तालिबान मान रहे हैं कि चीन देश का सबसे बड़ा और महत्त्वपूर्ण सहयोगी होगा। चीन की चालाक निगाहें देश के 6 लाख करोड़ रुपए से अधिक के खनिज भंडार पर हैं। अफगानिस्तान में कच्चे तेल और गैस के भंडार भी हैं। चीन ने पिछली सरकार में 25 साल का ठेका ले लिया था, ताकि वह खुदाई करके ‘बहुमूल्य संपदा तक पहुंच सके। ऐसे हालात में चीन अफगानिस्तान की कितनी मदद करेगा, यह भी देखना और घोषित किया जाना शेष है। इधर तालिबान के आतंकी वर्चस्व की लड़ाई में भी जुटे हैं कि हुकूमत में किसे कितनी ताकत मिलेगी? अब पाकिस्तान की भागीदारी भी खुलकर सामने आ गई है, जब काबुल में पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई के मुखिया जनरल फैज़ हमीद को सरेआम देखा गया। एक देश के ‘मुख्य जासूसÓ की दूसरे देश की हुकूमत बनवाने में क्या भूमिका हो सकती है? या वह आर्थिक और कारोबारी संदर्भ में क्या बातचीत कर सकता है? साफ है कि नई हुकूमत में पाकिस्तान अपनी हिस्से की ‘धूपÓ चाहता है। बहरहाल अफगानिस्तान में अंतत: क्या होगा और फिर हुकूमत अपनी अवाम को क्या-क्या मुहैया करा सकेगी, फिलहाल दुनिया को टकटकी लगाकर देखना ही है।
4.मोदी से हिमाचल का संवाद
जयराम सरकार के लिए यह क्षण आत्म संतोष भरी कर्मठता है और यह प्रमाणित कर रहा है कि कोविड के दौर में सुशासन के दस्तखत कितने गहरे व गंभीर हो सकते हैं। अठारह साल से ऊपर की सारी जनता को, वैक्सीनेशन का प्रथम टीका अगर सौ फीसदी हो पा रहा है, तो यह राष्ट्र के सामने एक नजीर है। वैक्सीनेशन के प्रति राज्य की गंभीरता में सरकार के साथ नागरिक समाज का खड़ा होना, तमाम रूढिय़ों से परे हिमाचली जनमानस की आधुनिक व वैज्ञानिक दृष्टि का द्योतक भी है। विभिन्न राज्यों से कहीं आगे हिमाचल का यह दस्तूर काबिले तारीफ होते हुए, प्रधानमंत्री की आंखों का तारा भी बन रहा है और इसी के परिप्रेक्ष्य में 6 सितंबर का संवाद, राष्ट्रीय अवधारणा बदल सकता है। यह संवाद भले ही कोविड वैक्सीनेशन के मजमून की छाती ठोंकेगा, लेकिन केंद्र सरकारों से हिमाचल का संवाद अभी अधूरा और कमजोर ही दिखाई देता है। राष्ट्रीय योजनाओं की मेहरबानियों में जीता यह प्रदेश अपने नखशख से केंद्र सरकारों के प्रति समर्पित हो रहा है।
यही वजह है कि राष्ट्र की तमाम योजनाओं का हिमाचली उल्लेख हमेशा श्रेष्ठ साबित हुआ, लेकिन राष्ट्र निर्माण के बजटीय आंकड़े व मानदंड पर्वतीय प्रदेश की साहसिक तथा क्रांतिकारी इच्छाओं को परिमार्जित नहीं कर पाए। कारण केवल यही कि सत्ता के आंकड़ों में सुशासित प्रदेश की सियासी शक्ति लघु आकार में दिखाई देती है या इस राज्य की भलमनसाहत दूसरे अनेक छोटे राज्यों की अराजकता व असंतोष के आगे ठिगनी हो जाती है। इस लिहाज से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संवाद से नए निष्कर्ष तभी निकलेंगे, अगर हिमाचल को पुरस्कृत करने के पैमाने भी बदले जाएं। शाबाशियों की तहरीर में हिमाचली योगदान को हमेशा देश अंगीकार करता रहा है, लेकिन प्रदेश के न्यायोचित अधिकार आज भी गिरवी हैं। पंजाब पुनर्गठन के वर्षों बाद और पूर्ण राज्यत्व के जयंती वर्ष तक पहुंचने के बावजूद हिमाचल के अधिकार तिरोहित हैं। सरहद पर कुर्बानियों का इतिहास लिखने वाले हिमाचल को सैन्य भर्ती कोटे ने बार-बार रोका-टोका है। डोगरा रेजिमेंट का इतिहास लिखने की गाथाओं में जो प्रदेश भूगोल नहीं, बलिदान का नक्शा है, उससे कहीं दूर रेजिमेंट का मुख्यालय उत्तर प्रदेश के फैजाबाद में है। न तो हिमाचल या हिमालय रेजिमेंट के गठन पर कभी गौर हुआ और न ही डोगरा रेजिमेंट मुख्यालय को हिमाचल में स्थानांतरित करने पर केंद्र ने गंभीरता दिखाई।
इसी तरह जल तथा वनाधिकारों के रूप में हिमाचल के प्राकृतिक संसाधनों को राष्ट्रीय इज्जत नहीं मिली, वरना पर्यावरण संरक्षण के नाम पर वन अधिनियम के तहत आर्थिक भरपाई होती और जल संसाधन को कच्चा माल मानते हुए प्रति यूनिट विद्युत उत्पादन पर कर अदायगी का लाभ मिलता। हिमाचल को फल,पर्यटन, आईटी तथा हर्बल राज्य बनने के लिए केंद्र सरकार का प्रश्रय चाहिए। अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने औद्योगिक पैकेज के मार्फत हिमाचल को फार्मा राज्य बना दिया था, इसी तरह रेल पैकेज मिले तो कनेक्टिविटी का नया आधार राज्य के उत्पादन को आर्थिकी से जोड़ सकता है। हिमाचल से प्रधानमंत्री का संवाद जाहिर तौर पर संवेदना से भरा होगा और इस बहाने मोदी सरकार के काम काज का तिलक स्पष्ट दिखाई देगा, लेकिन पर्वतीय राज्य की तलाश और भूख को समझना होगा। जब तक केंद्र सरकार में पर्वतीय राज्य विकास मंत्रालय की स्थापना नहीं होती है, राष्ट्रीय योजनाओं का न तो आकार मेहरबान होगा और न ही पर्वतीय मानदंडों के अनुरूप राष्ट्रीय संसाधन उपलब्ध होंगे। पर्वतीय परिवेश को समझने तथा इसके भविष्य को संवारने के लिए सतत प्रयास, अनुसंधान, वित्तीय सहयोग, तकनीक व जिस नवाचार की जरूरत है, उसके नेतृत्व के लिए पर्वतीय विकास मंत्रालय का गठन होना ही चाहिए।