इस खंड में, हम अपने पाठकों / आकांक्षाओं को राष्ट्रीय दैनिक के चयनित संपादकीय संकलन प्रस्तुत कर रहे हैं। द हिंदू, द लाइवमिंट, द टाइम्सऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इकोनॉमिक टाइम्स, पीआईबी आदि। यह खंड सिविल सर्विसेज मेन्स (जीएस निबंध), पीसीएस, एचएएस मेन्स (जीएस ,निबंध) की आवश्यकता को पूरा करता है
1.अनुराग के बहाने
सियासी खबरों की तफतीश से चर्चाएं अगर नेताओं का व्यक्तित्व निखार दें, तो हर वक्त की तहरीर में भविष्य के संकेत रहते हैं। यह लोकतांत्रिक महत्त्वाकांक्षा भी हो सकती है कि सियासत के वर्तमान में घराैंदे बनाए जाएं या राजनीति की अतिशियोक्ति में देश के प्रति दायित्व को नजरअंदाज किया जाए। जो भी हो आज से शुरू हो रहा अनुराग ठाकुर का हिमाचल दौरा केवल एक केंद्रीय मंत्री का पदार्पण नहीं, बल्कि राजनीतिक लहरों का ऐसा संवेग भी हो सकता है, जो ऐसी घड़ी की प्रतीक्षा में कहीं अटक गई थीं। बतौर केंद्रीय मंत्री इससे पूर्व वीरभद्र सिंह, जगत प्रकाश नड्डा या शांता कुमार आते रहे हैं, लेकिन इस बार कुछ अंदरूनी बहारें और बहाने भी आ रहे हैं। सियासी बहारों के संगम पर अनुराग ठाकुर का रुतबा किसी सिक्के या सितारे की तरह, अपने सामने चश्मदीद इकट्ठे करता रहा है, तो इस श्रृंखला के विपरीत वजूद टूटते रहे या बन कर सामना कर रहे हैं। हिमाचल में केंद्रीय सत्ता के अलग-अलग पड़ाव दिखाई देते हैं।
यह पहले हुआ और कांग्रेस में भी हुआ। ऐसे में बतौर केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर का हिमाचल आगमन, कई खबरों के बहाने तराशेगा और गुमसुम तरानों को आक्सीजन देगा। स्वागती तोरणद्वारों से गुजरती भाजपा की टुकडि़यां और उनके सेनापति किस रंग में होते हैं या किस में दिखाई देते हैं, यह राजनीति की नई कार्यशाला तय करेगी। यह इसलिए भी कि सियासत अब एक कुटुम्ब की तरह अपनाने और अपना होने की शर्त है, इसलिए नारों में कुछ बगारें और बेगानों में भी कुछ नारे उछल ही जाएंगे। बहरहाल, बतौर केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर को अपने होने के मायने सुदृढ़ करने हैं और इसके दो आयाम स्पष्ट हैं। पहले इस दौरे के निहितार्थ में राजनीतिक संभावनाएं और भविष्य की पड़ताल में समीकरणों का उल्लेख होगा यानी कल तक जो युवा अपने पिता एवं पूर्व मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल की छांव में पलता हुआ दिखाई देता था, अब अपनी स्वतंत्र धारा का प्रबल शृंगार कर रहा है। यह यात्रा मुकम्मल होने की खबर है और खबरों के जश्न में सियासत का नया राग भी है। इसलिए अपने यथार्थ में अनुराग को कुछ कहने का अवसर और हिमाचल की उम्मीदों को परवान चढ़ाने के पल बढ़ाने का कारवां भी। हिमाचली जनता नेताओं को अपने सपनों में टटोलती है और उनके प्रदर्शन में प्रदेश की भुजाओं का बल देखती है।
इसलिए अपनी सीढि़यों पर चढ़ते अनुराग भले ही बलशाली दिखाई देते हैं, लेकिन प्रदेश के सामर्थ्य में उनके दायित्व की शक्ति का समर्थन देखा जाएगा। हिमाचल के लिए जिस तरह अटल बिहारी वाजपेयी ने औद्योगिक पैकेज दिया था, उसके समरूप प्रदेश को केंद्र का आर्थिक व वित्तीय सहयोग चाहिए। विकास में गुणात्मक परिवर्तन के लिए आर्थिक पैकेज की जरूरत है, ताकि पर्वतीय अधोसंरचना में निखार आए। मानसून की पहली बारिश ने जिस तरह विकास के ढांचे की पोल खोली है या कोरोना काल में स्वास्थ्य सेवाओं की कमियां उजागर हुई हैं, उन्हें देखते हुए केंद्र सरकार का स्पर्श, वास्तव में अनुराग ठाकुर को कद्दावर बनाएगा। वित्त राज्य मंत्री से खेल तथा सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय तक ठाकुर की छलांग की असली पैमाइश अब शुरू होगी। यह स्वागत हमीरपुर संसदीय क्षेत्र के सांसद का नहीं, केंद्रीय सरकार में हिमाचल के प्रतिनिधित्व का होगा। राजनीति भले ही उन्हें प्रदेश भर में घुमा देगी, लेकिन प्रदेश के घुमावदार विकास में बतौर केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर कैसे आगे बढ़ते हैं, यह देखा जाएगा। केंद्र के पास हिमाचल की कई अर्जियां या हिमाचली अधिकारों के पैबंद पड़े हैं, क्या पुरानी परतों को हटाकर अपने ओहदे में हमीरपुर के सांसद अब पूरे हिमाचल का केंद्रीय मंत्री बनने में भी सक्षम होंगे। स्वागती मुस्कराहटों की सियासी मुद्रा से कहीं आगे का सफर अभी भविष्य की कोख में है, लेकिन अपनी उम्र के हिसाब से बड़े अनुभव की यात्रा में अनुराग अपनी मंजिल जरूर जोड़ रहे हैं।
2.तालिबान का छलावा
तालिबान नेताओं ने अफगानिस्तान के अवाम, खासकर औरतों, को आश्वस्त किया है कि वे साझा, समावेशी और मानवाधिकारवादी हुकूमत चलाएंगे। औरतों के हुकूक का सम्मान किया जाएगा। किसी के घर में घुसने या हथियार छीनने के कोई निर्देश नहीं हैं। सरकारी कर्मचारी और आम अवाम अपने काम पर लौटें। तालिबान ने कर्मचारियों और सुरक्षा बलों को माफी दे दी है। हुकूमत किसी के खिलाफ नहीं है। अवाम रूटीन लाइफ शुरू करें। शरिया कानून के मुताबिक, महिलाएं सरकार में शामिल हों और साझा भूमिका निभाएं। वे पढ़े-लिखें, काम करें और आगे बढ़ें। कोई पाबंदी नहीं है। अफगान युवा हमारी संपत्ति हैं, वे यहां पले-बढ़े हैं, लिहाजा वे मुल्क छोड़ कर न जाएं। दरअसल किसी को डरने या खौफ खाने की ज़रूरत नहीं है। अफगानिस्तान में नई हुकूमत शक्ल अख्तियार कर रही है, लिहाजा उसे काम करने का मौका दिया जाए। हुकूमत की धार्मिक भावना को समझा जाए और उसी के मुताबिक देश और दुनिया उसे मान्यता दे। विदेशी दूतावास और संस्थान भी किसी के निशाने पर नहीं हैं। उन्हें कोई नुकसान नहीं पहुंचाएगा। भारत का नाम लिए बिना ही तालिबान ने आश्वासन दिया है कि यदि किसी के प्रोजेक्ट अधूरे हैं, तो वे उन्हें पूरा करें, क्योंकि यह अफगान अवाम के हित में होगा। कोई भी, किसी देश के खिलाफ अफगान सरज़मीं को इस्तेमाल नहीं कर सकेगा। तालिबान के प्रवक्ताओं सुहैल शाहीन और जबीहुल्लाह मुजाहिद ने हुकूमत का उदार और समन्वयवादी चेहरा पेश करने की कोशिश की है।
उन्होंने शैतानियत का जरा-सा भी संकेत नहीं दिया है और न ही सामूहिक तौर पर बर्बर वारदातें सार्वजनिक हो रही हैं। तालिबान ने लोकतंत्र की जुबां बोली है, हालांकि लोकतंत्र उनके संस्कारों और सोच में बिल्कुल भी नहीं है। वे मध्यकालीन कबीलाई जीवन-शैली को जानते हैं और उसी के मुताबिक सक्रिय रहे हैं। चीन, रूस, पाकिस्तान, तुर्की वगैरह देश तालिबान की जुबां और आश्वासनों पर भरोसा कर रहे हैं, क्योंकि उनके हितों का फोकस अफगानिस्तान के कई ट्रिलियन डॉलर के खनिज संसाधनों पर है, लिहाजा वे हालात को पहले की अपेक्षा बेहतर आंक रहे हैं। काबुल की सड़कों पर जो भगदड़, अफरातफरी मची है, लोग किसी भी तरह अफगानिस्तान छोड़ कर भागना चाहते हैं, गनी सरकार के दौरान मेयर रहीं एक राजनेत्री अपने परिवार समेत इंतज़ार कर रही हैं कि तालिबान आएं और उन सभी की हत्या कर दें, काबुल के बाहर बर्बरताओं की कुछ ख़बरें सामने आई हैं, ज्यादातर दूतावास बंद हो चुके हैं, तो बुनियादी सवाल यह है कि क्या रूस ऐसे हालात को बेहतर आंक सकता है? क्या तालिबान का नया चेहरा महज एक छलावा है? क्या भारत सरकार अब तालिबान हुकूमत के साथ संवाद करेगी या उन्हें आतंकी करार देगी? गौरतलब यह है कि काबुल पर तालिबान के कब्जे के बाद जेलों से करीब 2300 आतंकियों को रिहा किया गया है। उनमें अलकायदा, तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान आदि के आतंकी ज्यादातर थे।
वे कहां गए हैं, कहां सक्रिय होंगे और अंततः आतंकवाद नहीं फैलाएंगे, तालिबान प्रवक्ताओं ने इन सवालों का जरा-सा भी संकेतात्मक जवाब नहीं दिया है। सरहदी इलाकों से ख़बरें आई हैं कि तालिबान आतंकियों ने कहा है कि अब पाकिस्तान की बारी है। खौफनाक सच यह है कि अमरीकी सैनिक तोप, टैंक, बख्तरबंद वाहन, बारूदी सुरंग से बचाने वाले वाहन आदि तमाम आधुनिक हथियार थोक में छोड़ गए हैं। तालिबान ने उन पर भी कब्जा पा लिया है, लिहाजा लड़ाके और उनके समर्थक जेहादी अब हथियार सम्पन्न होंगे। दरअसल इस बार तालिबान की जुबां ही बदली लग रही है, क्योंकि उसे संयुक्त राष्ट्र और महत्त्वपूर्ण देशों की एकबारगी मान्यता की दरकार है। तालिबान के पास आर्थिक संसाधन सीमित ही हैं। यदि बड़े देशों की आर्थिक पाबंदियां लगनी शुरू हो गईं, तो हुकूमत देश कैसे चला पाएगी? विश्व तालिबान के इस प्रपंचमयी छलावे को बखूबी जानता है, फिर भी अभी वे देश आकलन जरूर करेंगे, क्योंकि चीन के रूप में तालिबान के पास आर्थिक सहारा दिखाई देता है। भारत सरकार ने फिलहाल कोई राजनयिक निर्णय नहीं लिया है, लेकिन कैबिनेट की सुरक्षा संबंधी समिति की बैठकों में यह जरूर तय किया गया है कि सभी भारतीयों को अफगानिस्तान से वापस लाया जाएगा। ऐसे 1650 से ज्यादा भारतीय आवेदन कर चुके हैं कि उन्हें बचाया जाए।
3.सेना में महिलाएं
महिलाओं के लिए एक और मार्ग प्रशस्त होने जा रहा है। देश की सर्वोच्च अदालत ने साफ कर दिया कि राष्ट्रीय रक्षा अकादमी (एनडीए) या भारतीय नौसेना अकादमी में प्रवेश से महिलाओं को वंचित नहीं किया जा सकता। यह फैसला कुश कालरा द्वारा दायर एक याचिका पर आया है, जो प्रतिष्ठित पुणे स्थित राष्ट्रीय रक्षा अकादमी (एनडीए) और केरल स्थित भारतीय नौसेना अकादमी (आईएनए) में प्रवेश पाने के लिए महिलाओं के वास्ते समान अवसर की मांग कर रही हैं। अभी ये दोनों अकादमियां महिला कैडेट की भर्ती नहीं करती हैं। न्यायमूर्ति संजय किशन कौल और हृषिकेश रॉय की पीठ के समक्ष बुधवार को सुनवाई के लिए मामला आने पर केंद्र सरकार ने कहा कि महिलाओं के रोजगार के लिए जो रास्ते खोले गए हैं, उनमें उन्हें सशस्त्र बलों में समान अवसर दिया जा रहा है। केंद्र सरकार ने यह बताने की कोशिश की कि यह किसी भी मौलिक अधिकार का उल्लंघन नहीं है। हालांकि, यह बात साबित हो गई कि सेनाएं पुरुष और महिलाओं में भेद करती हैं। अब महिलाएं सैन्य अकादमियों की परीक्षा में बैठ सकेंगी।
इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने इस साल मार्च में याचिका पर नोटिस जारी किया था। कुश कालरा ने उचित ही कहा था, पात्र और इच्छुक महिला उम्मीदवारों को उनके लिंग के आधार पर (एनडीए और नौसेना अकादमी की) परीक्षाओं में बैठने की अनुमति नहीं है। इसमें कोई शक नहीं कि भेदभाव का यह कार्य समानता के सांविधानिक मूल्यों का अपमान है। कोई शक नहीं है कि महिलाओं ने अपने अधिकारों के लिए लंबे समय से संघर्ष किया है। हमारी सेनाओं में भी महिलाओं को अब पहले की तुलना में ज्यादा जगह मिल रही है। पहले उन्हें उच्च अधिकारी बनने का अधिकार हासिल नहीं था, लेकिन अगर हम नौसेना की बात करें, तो हलफनामे में कहा गया है कि नौसेना में चार शाखाएं हैं- कार्यकारी, इलेक्ट्रिकल, इंजीनियरिंग, शिक्षा और आज की तारीख में सभी शाखाओं में महिलाओं के प्रवेश की अनुमति देने के लिए प्रतिबंध हटा दिया गया है। हालांकि, जमीनी हकीकत यह है कि सेनाओं में महिलाओं की भर्ती के लिए कोई अलग से इंतजाम अभी तक नहीं किए गए हैं। पुरानी सोच हावी है। सेना को लोग पुरुषों का काम मानते हैं, जबकि बदलते दौर में सेना में महिलाओं की भूमिका बढ़ती जा रही है। खासकर उन महिलाओं को सेना में आने से नहीं रोका जा सकता, जिनकी इच्छा है, जो सेना में आकर देश की सेवा करना चाहती हैं। सेना में महिलाओं की भर्ती पर किसी को आपत्ति नहीं रही है, लेकिन महत्वपूर्ण पदों पर महिलाओं को आगे आने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है। यह मामला उदाहरण है कि सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप के बाद ही सेना में महिलाओं के सम्मान की बहाली हो पा रही है। उल्लेखनीय है कि कुश कालरा की याचिका के अलावा, अदालत इस शैक्षणिक वर्ष से देहरादून में राष्ट्रीय भारतीय सैन्य कॉलेज में लड़कियों के प्रवेश की मांग करने वाली कैलास उधवराव मोरे द्वारा दायर याचिका पर भी विचार कर रही है। यह कॉलेज रक्षा मंत्रालय द्वारा लड़कों के लिए चलाया जाता है। केंद्र सरकार को अभी इस याचिका पर जवाब देना है। बेशक, सेनाओं में महिलाओं को समान स्तर पर आने से रोकना अब मुमकिन या न्यायोचित नहीं है।
4.अमेरिका पर दाग
विफलता को स्वीकार करे बाइडेन प्रशासन
देश-दुनिया में हो रही आलोचनाओं का बचाव करते हुए अमेरिकी राष्ट्रपति अफगानिस्तान के तुरत-फुरत तालिबान के कब्जे में आने के लिये अफगान सरकार व सेना को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं। लेकिन दुनिया महसूस कर रही है कि युद्धग्रस्त अफगानिस्तान में दो दशक से फंसे अमेरिका ने अपना पिंड छुड़ाने को तीन करोड़ अफगानियों को क्रूर तालिबानियों के रहमोकरम पर छोड़ दिया है। सवाल पूछा जा रहा है कि दो दशकों में एक ट्रिलियन डॉलर खर्च करने और तीन लाख अफगान सैनिकों को प्रशिक्षित करने के दावे के बावजूद क्यों तालिबानियों को काबुल यूं आसानी से सौंप दिया। यदि सेना व सरकार पर भ्रष्टाचार के आरोप थे तो ये अमेरिकी सेना की नाक के नीचे क्यों होने दिया गया? सवाल यह है कि बाइडेन प्रशासन ने जब ट्रंप सरकार द्वारा लिये गये सेना वापसी के फैसले को क्रियान्वित किया तो सेना निकासी कार्यक्रम को योजनाबद्ध ढंग से क्यों अंजाम नहीं दिया गया? क्यों वैकल्पिक सरकार की व्यवस्था करके तालिबान को चरणबद्ध ढंग से लौटने को बाध्य नहीं किया गया। इस अप्रत्याशित घटनाक्रम ने फरवरी, 2020 में अमेरिका व तालिबान के बीच दोहा में हुए शांति समझौते पर भी सवालिया निशान लगा दिये हैं। आखिर जिस समझौते से स्थायी व व्यापक युद्धविराम तथा तालिबान व अफगान सरकार में वार्ता का मार्ग प्रशस्त होना था, वह हकीकत क्यों नहीं बन सका। अप्रैल में बाइडेन प्रशासन की सेना वापसी की घोषणा के बाद यह दांव उलटा क्यों पड़ गया। सवाल इस सारे प्रकरण में पाकिस्तान की संदिग्ध भूमिका को लेकर भी है, जिसको लेकर अमेरिका का रुख अनदेखी का ही रहा। भारत ने तालिबान को बढ़ावा देने में पाक की भूमिका के बाबत पिछले माह दिल्ली आये अमेरिकी विदेशमंत्री एंटनी ब्लिंकन को अवगत कराया था, लेकिन वे भारत की चिंताओं को दूर करने में विफल रहे। सही मायनों में अमेरिका को विश्व जनमत के सामने ईमानदारी से अपनी नाकामी स्वीकार करनी चाहिए।
अमेरिका में डेमोक्रेट राष्ट्रपति जो बाइडेन के चुने जाने के बाद दुनिया में उम्मीद जगी थी कि विश्व में लोकतांत्रिक मूल्यों की स्थापना को गति मिलेगी। चीन की मनमानी के खिलाफ यूरोपीय यूनियन से एकजुटता व जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर सक्रियता ने इस विश्वास को बढ़ाया था, लेकिन अफगानिस्तान के घटनाक्रम ने अमेरिका की नेतृत्वकारी भूमिका पर सवालिया निशान लगा दिये हैं। कोरिया, वियतनाम, इराक के साथ अफगानिस्तान की नाकामी भी अमेरिकी इतिहास में दर्ज हो गई है। अफगानिस्तान का जनमानस भय व असुरक्षा के बीच जी रहा है। फिर देश बीस साल पुरानी स्थिति में जा पहुंचा है। दुनिया के तमाम देशों के वे लोग जो अफगानिस्तान के विकास के लिये पहुंचे थे, आज तालिबान के रहमोकरम पर हैं। सवाल उठाये जा रहे हैं कि जब तालिबान ने शांति समझौते का पालन नहीं किया तो अमेरिका को अफगानिस्तान से निकलने की जल्दबाजी क्या थी? इस बीच तालिबान ने हमले व बम धमाकों का क्रम जारी रखा तो क्यों उसे समझौते के पालन के लिये बाध्य नहीं किया गया। अमेरिका ने सख्ती क्यों नहीं दिखायी? बहरहाल, बाइडेन प्रशासन की जल्दबाजी से जहां पूरी दुनिया में अमेरिका को शर्मिंदगी उठानी पड़ रही है, वहीं दुनिया आतंक की नई जमीन तैयार होने से आशंकित है। दरअसल, न तो अमेरिका व न ही संयुक्त राष्ट्र जैसे संगठन यह विश्वास दिलाने में कामयाब हो पाये हैं कि तालिबान के कब्जे में आये अफगानिस्तान में लोकतांत्रिक मूल्यों व खासकर महिलाओं के अधिकारों की रक्षा होगी। रणनीतिक तौर पर तालिबान मीठी-मीठी बातें कर रहा है लेकिन उसके अतीत को देखते हुए उस पर भरोसा करना कठिन है। अमेरिकी जल्दबाजी से आधुनिक हथियारों व वायुसेना पर तालिबान के कब्जे से आज वह दुनिया का सबसे शक्तिशाली आतंकी संगठन बन चुका है। यह कहना भी जल्दबाजी होगी कि तालिबान में कोई सर्वमान्य नेतृत्व विकसित हो पायेगा। इस बात की गारंटी कौन लेगा कि अफगानिस्तान की धरती से अलकायदा व आईएसआईएस का खात्मा हो चुका है। कल अफगानिस्तान यदि पाकिस्तान व अन्य देशों की मदद से आतंकियों का स्वर्ग बन जाए तो इसमें कोई अतिशयोक्ति न होगी।